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२१.
टिप्पणानि। [४० ५९. पं० १५सुच्छानलिकानशाश्वतार सो बोधिमण्डं न चिरेण गच्छति ॥ इति ।" मध्यमकवृत्ति पृ०. १२८ । विशेषा• गा० ३२० । स्याद्वादमं० का० १५।।
पृ० ५९. पं० १५. 'सकलकर्म तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० १३५ । पृ० ५९. पं० १८. 'यथाहिं' तुलना वही० पृ० ५११ ।
पृ० ६०. पं० २. 'संख्या' तुलना- "विप्रतिपत्तिनिराकरणाथै शाखम् । संख्यासरूपगोचरफलविषया चतुर्विधा चात्र विप्रतिपत्तिः।" प्रमाणसमु० टी० १.२ । न्यायबि० टी० पृ०९ । न्याया० टी० पृ० ८।।
द्वितीयपरिच्छेदः। पृ. ६०.५० ५. 'ज्ञानपेक्षं तुलना-"मयममामिप्राय:-लसंवेदनं प्रति मिशिलपानानामेकरूपतया साक्षात्करणचतुरत्वात् नास्स्येव मेदः, बहिरये पुनरपेक्ष्य कवित चक्षुरादिसामग्रीवललब्धसत्ताका खावयवव्यापिनं कालान्तरसंचरिष्णुं स्थमिवक्षणवि. वर्तमलक्षितपरमाणुपारिमाण्डल्यं संनिहितं विशदनिर्भासं सामान्यमाकारं साक्षात्कुर्वाण: प्रकाशः प्रथते तत्र प्रत्यक्षव्यवहारः प्रवर्तते । यः पुनर्लिनशब्दादिद्वारेण नियतानियतसामान्याकाराषलोकी परिस्फुटतारहितः सत्यात्मनोऽर्थग्रहणपरिणामः समुल्लसति स परोक्षतां स्वीकरोति ।" न्याया० टी० पृ० २५ ।
पृ० ६०. पं० ५. 'प्रमेयस्य' शान्या चार्य ने द्वितीयपरिच्छेदके प्रारम्भमें दो बातें कही हैं
(१) प्रमेय दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।
(२) प्रमेय दो हैं अत एव प्रमाण मी दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । शान्त्या चार्य के इस कपनको समझनेके लिये बौद्ध विद्वान् दिमाग और धर्म की र्ति के ऐसे ही मन्तव्योंका थोड़ा स्पष्टीकरण आवश्यक है । क्योंकि इन दोनों बातोंका जैनदर्शनमें प्रवेश और स्पष्टीकरण, उन्हीं दोनोंकी विचारधाराके आधार पर हुआ है।
जैनाचार्योंने इन बातोंको अपनाकर भी जैनदार्शनिक दृष्टिका पुट उन पर दिया है । अत एष तुलनाके साथ साथ विषमताका स्पष्टीकरण और समन्वय भी दिखाना आवश्यक हो जाता है। इस लिये निम्नलिखित मुद्दों पर यहाँ विचार किया जाता है
१-दिमागसम्मत प्रमाणविप्लव । २-धर्मकीर्तिसम्मत स्खलक्षण और सामान्यका भेद । ३-धर्मकीर्तिसम्मत एक ही प्रमेय । ४-धर्मकीर्तिसम्मत प्रमाणविप्लव । ५-धर्मकीर्तिके मतका संक्षेप । ६-जैनदार्शनिकोंका अभिमत, उसका बौद्योंसे साम्य-वैषम्य वथा समन्वय ।
७-जैनसम्मत प्रमाणविप्लव और सम्प्लव । १-दिमागने प्रमाण समुच्चय की खोपज्ञ वृत्तिमें स्पष्ट कहा है कि प्रमेय दो प्रकारका है अत एव दो ही प्रमाण हैं । खलक्षण और सामान्यके अतिरिक्त प्रमेय नहीं है । टीकाकारने
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