Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 463
________________ २७२ टिप्पणानि । [१० १०५. पं० २२गोंकी-सम्बन्धोंकी इयत्ताका निश्चय कठिन है-"तसाचो वासवाऽस्तु सम्बन्पावलं यस्यासी सामाविको नियतः स एव गमको गम्यश्चेतरः सम्बन्धीति युज्यते ।तमा. उपाधि प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य सामाविकत्वं सम्बन्धस्य निधि नुमः।" तात्पर्य० पृ० १६५ । __ वैशेषिक सूत्र में (९. २. १) चार प्रकारके सम्बन्धका उल्लेख है किन्तु प्रशस्त पादने स्पष्टीकरण किया है कि सूत्रमें कार्यादिका प्रहण हेतुसंख्याके अवधारणार्थ नहीं किन्तु निदर्शनार्थ है । अत एव सूत्रनिर्दिष्ट सम्बधोंसे अतिरिक्त सम्बन्धके कारण मी कोई हेतु हो सकता है। वस्तुतः सम्बन्धसामान्यका प्रहण ही पर्याप्त है विशेष सम्बन्धोंका नियम नहीं किया जा सकता। "शाले कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थे कृतं नावधारणार्थम् । कस्माद् व्यतिरेकदर्शनाद।.. एवमादि तत् सर्व 'मस्येवम्' इति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् । प्रशस्त० वि० पृ० २०५ । कंदली० पृ० २११ । जैनों मे भी अविनाभावरूप एक सामान्यसम्बन्ध ही पर्याप्त माना है । अविनामावके नियामक सम्बन्धोंकी संख्या नियत नहीं की है-परी० ३.१५-१६,६१-६४ । मीमांसकों को मी अविनाभाव-व्याप्तिरूप एक सम्बन्धसामान्य ही इष्ट है। व्यातिनियामक अन्य सम्बन्धोंकी संख्याका नियम नहीं किया जा सकता है ऐसा उनका मन्तव्य हैशानदी० पृ०६०। प्रकरण पं० पृ०६४। पृ० १०५. पं० २२. 'कालादिपरिकल्पनात्' हेतुका त्रैरुप्य लक्षण मानने पर पक्षसल-अर्षात् हेतुका पक्षवृत्तिस्व एक आवश्यक अंग सिद्ध होता है। किन्तु 'शकटका उदय होगा, कृतिकाका उदय होनेसे', इत्यादि अनुमानोंमें कृत्तिकाका उदय पक्षधर्म नहीं फिर मी उससे शकटोदय सिद्ध होता है अत एव पक्षवृत्तित्व अन्यात होनेसे हेतुलक्षण नहीं । इस आक्षेपके उत्तरमें बौद्धोंने कहा कि ऐसे स्थलमें काल या देशको पक्ष मानकर हेतुकी पक्षधर्मता सिद्ध की जा सकती है "यघेवं तत्कालसम्बन्धित्वमेव साध्यसाधनयोः । तदा च स एव कालो धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम्।" प्रमाणवा० कर्ण०प०११ वैशेषिक दर्शनमें मी त्रैरूप्य हेतुलक्षणरूपसे मानागया है । प्रशस्त पादने 'अनुमेयेन सम्बद्धम्' का अर्थ किया है कि "यदनुमेयेन अर्थेन देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितम् ।" प्रशस्त० वि० पृ० २०१। वार्तिककारमे प्रस्तुतमें अन्य जैनाचा योंका अनुसरण करके पक्षधर्मताकी सिद्धिके लिये की गई कालादि धर्मीकी कल्पनाका निरास किया है। पृ० १०६. पं० १. 'विशेषेऽनुगमाभावात्' इत्यादि अनुमानका दूषण चार्वाक के किसी प्रन्याश्रित है । ज य राशि ने इस पोशका अनेक प्रकारसे अर्थ करके अनुमानके प्रामाण्यका निरास किया है । और अन्य दार्शनिकोंने मी इसका उत्तर विस्तारसे दिया है-तत्त्वो० पृ. १.तात्पर्य०पू०१६४। २. तुलना-ग्लोकवा० अर्थापति०१७ । प्रमाणसं०पृ० १०४। तरवार्थन्लो० पृ० १९८-२००। प्रमाणप० पृ० ७१ । न्यायकु०पृ०४४० । स्याद्वादर. पृ०५१९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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