Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 474
________________ १० ११७.५०५] टिपनि। भूततपतावादका प्रतिपादन पढते हुए जैनों के इम्प-गुण-पर्यायवादका निचय और व्यवहारनयसे किया हुमा विचार सामने आ जाता है। जैन संमत आत्माकी तरह भूततयताके दो रूप अवघोषने बताये हैं। पारमार्थिक और साहतिक-व्यावहारिक । पारमार्षिक भूततथता वह है जो विश्वका परमतत्व है। और व्यावहारिक भूततयता संसारके रूपमें है अर्थात् जन्म और मृत्युके रूपमें । जैनोंने जिसे नैश्चयिक आत्मा कहा है वही रूप भूततयताका है। फर्क यही है कि जैनोंने नैश्चयिकआत्माको एकमात्र परमतत्त्व नहीं माना । तदतिरिक्त एक अजीवतत्व भी माना है । अथवा एक दूसरी दृष्टिसे देखा जाय तो कुन्दकुन्दा चार्य जिसे सत् कहते हैं वही भूततथताके निकट है। सांख्योंकी प्रकृति जो समस्त भौतिकपदार्थ और चित्तका मूलतत्व है वह मी भूततयताके समीप है। __ भूततयताके व्यावहारिकल्म अर्थात् सांवृत्तिकरूप संसारके मुख्य तीन रूप है-द्रव्य, गुण और क्रिया । संसारकी अर्थात् व्यवहारकी ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें ये तीन न हों। गुण और क्रिया (भाव-पर्याय) उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होते हैं किन्तु द्रव्य ध्रुवभावी है। व्यावहारिक आत्माका जो रूप जैनोंने माना है या सांख्यों ने प्रपञ्चका जो रूप माना है उसके समीपका यह भूततयताका सांवृतिकरूप है। __ योगाचार बौद्धोंने एकान्तमेदको ही परमतत्त्व माना है । विज्ञानाद्वैतका मतलब ब्रह्माद्वैतकी तरह एक मात्र विज्ञानका अस्तित्व तो है किन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सब विज्ञान मी एक हैं । धर्म की र्ति ने सन्तानान्तरसिद्धिं लिखकर इस वक्तव्यको स्पष्ट किया है जिससे यह स्पष्ट है कि विज्ञानात मानकर मी योगाचार एकान्त अमेदवादी नहीं किन्तु मेदवादी है । जबकि इसके विपरीत भूततयत्यवादके अनुसार परम तत्त्वमें सबका समन्वय है। और वह सांख्योंकी प्रकृतिके समान और जैनोंके सामान्य द्रव्यके समान निल है । ___ बोद्धोंके ऐसे सिद्धान्तोंकी तुलना जब हम दिग्नागादि प्रतिपादित पूर्वोक क्षणिकान्तवादसे करते हैं तब यही कहना पड़ता है कि भगवान् बुद्धको अभिप्रेत वही हो सकता है जो सर्वास्तिवादादि प्राचीनवादोंमें प्रतिपादित है। ___ अतएव विनाशस्य अहेतुकत्वाद' जैसे क्षणिकैकान्तके साधक हेतुका प्रयोग दियागादि तार्किक योगाचारोंके प्रन्योंमें ही मिले तो कोई बाधर्यकी बात नी । इस हेतुका खण्डन उद्घोतकर तथा कुमारिल वादिने किया है । इससे वह धर्मकीर्तिसे पहलेके बमुबन्धु और दिग्नागके अन्यमें होना चाहिए। उसीका उपयोग धर्मकीर्तिने भी किया है यह स्पष्ट है। ..वही पृ०२५४ पं०१६। २.वही पृ०२५४।३.वही पृ०२५५। 8. "Bhūtatathată implies oneness of the totality of things or Dharmadhatu-The great all-including whole, the quintessence of the doctrine. For the essential nature of the Soul is uncreated and eternal." Awakening of faith p.55-56. Systems of Buddhistic Thought p. 2551 ५ न्यायवा०पृ०४१३ | श्लोकवा०शब्दनि०२४।.."वदेवं विनाशं प्रत्यनपेक्षामसामीवैपाम्पा देवयोगेन कृतवणल सत्त्वमा पूर्वाचार्यवासितां पतिपाब"-हेनुर्वियुद्धीका पृ०१४३ । प्रमाणवा० ३.१९३३२६९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525