Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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का० १४-२१] १. न्यायावतारकी तुलना ।
कारिका १४ उ०. परी० ३.३४ । प्रमाणन० ३.२८ प्रमाणमी० २.१.८॥ कारिका १६. प्रमाचन्द्रने इस उपमाका उपयोग किया है-न्यायकु० पृ० १३७ ।
कारिका १७. न्यायस० १.१.३४,३५ । न्यायप्र० पृ० १. पं० ८। न्यायबि० पृ० ६२-६३ । परी० ३.९४ । प्रमाणन० ३.२९-३२ । प्रमाणमी० २.१.४-६ । न्यायकु० पृ०:४२३ ।
कारिका १८-१९. न्यायसू० १.१.३६,३७ । असंगने दृष्टान्तके साधर्म्य और वैधर्म्य भेद माने हैं-J. R. A.S. 1929 p. 476. न्यायप्र० पृ० १, पं० १५ । न्यायवि० का० ३८० । परी० ३. ४७-४९ । प्रमाणन० ३.४२-४७। प्रमाणमी० १.२.२०-२३ । · कारिका २०. न्यायबिन्दुमें हेतुके साधर्म्य और वैधर्म्य प्रयोगसे ही साधर्म्य और वैधर्म्य दृष्यंत कैसे गतार्थ हो जाते हैं इसका धर्मकीर्तिने स्पष्टीकरण किया है अतएव पृथक् दृष्टान्तका विवरण अनावश्यक उन्होंने बताया है-न्यायबि० पृ० ११७-१२१ । प्रमाणसं० का० ३२,५० । न्यायवि० का० ३८१ । परी० ३.३७-४२ । प्रमाणन० ३.२८,३३-३८ प्रमाणमी० १.२.१८,१९।
प्रो० टूचीका कहना कि दिग्नागके पहले के कुछ बौद्धदार्शनिकोने दृष्टान्तका प्रयोग अनावश्यक माना है-देखो J. R.A. S. 1929. p. 487.
ऐतिहासिक क्रम यह जान पडता है कि जबतक हेतुका लक्षण सुनिश्चित नहीं हुआ था तबतक दृष्टान्तके बलसे ही साध्यको हेतुके द्वारा सिद्ध किया जाता था। जब तक ऐसी स्थिति रही तबतक हेतुके साथ दृष्टान्तका पृथक् अवयवके रूपमें प्रयोग नितान्त आवश्यक माना जाता था । किन्तु जबसे हेतुका लक्षण स्थिर हुआ यानि साध्य और साधनकी व्याप्तिका पता लग तब अन्तर्व्याप्तिका सिद्धान्त आविर्भूत हुआ और उसीके बलसे साध्यकी सिद्धि हेतुसे की जाने लगी। यह सिद्धान्त वसुबन्धु और दिग्नागसे पहले का है । वसुबन्धु और दिमागने फिरसे अन्तर्व्याप्तिके सिद्धान्तको मानते हुए भी दृष्टान्तकी उपयोगिता व्याप्ति स्मारकरूपसे मानी यानि दृष्टान्तको पृथक् अवयव न मानकर हेतुके ही अन्तर्गत कर लिया । अतएव फलितार्थ यह हुआ कि वह साधनावयव तो रहा नहीं किन्तु पूर्ववत् अत्यन्त निरुपयोगी भी नहीं माना गया और न एकान्त आवश्यक ही माना गया । यही सिद्धान्त धर्मकीर्तिका भी है।
आचार्य सिद्धिसेनका भी यही मन्तव्य है । जो उन्होंने १८-२० कारिकाओंमें प्रतिपादित किया है।
कारिका २१. "यत्पुनरनुमान प्रत्यक्षागमविरुवं न्यायामासः स इति ।" न्यायमा० १.१.१।
"प्रत्यक्षार्थानुमानाप्तप्रसिद्धन निराकृतः।" यह दिग्नागसंमत बाधित-निराकृत पक्षाभास है। दिमागकी इस कारिकाको प्रज्ञाकरने उद्धृत किया है-प्रमाणवा० अलं० पृ० ६७७ । विशेष तुलनाके लिये देखो-प्रमाणमी० भाषा० पृ० ८८।
1. "वडावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः ।
क्यानते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥" प्रमाणवा०३.२६ ।
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