Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 484
________________ का० १३-१६] १. न्यायावतारकी तुलना । २१३ "तत्र 'परार्थमनुमान [तु] खदृष्टार्थप्रकाशनम्' इति आचार्यायलक्षणम् । खेन पर सदृष्टः । वहष्टबासावर्थश्चेति त्रिरूपो हेतुः । तस्य प्रकाशनं वचनम् , अनुमानहेतु. स्वादित्यर्थः।" प्रमाणवा० मनो० ४.१ । प्रमाणसमुच्चयवृत्ति जो दिमागकृत ही है उसका एक वाक्य प्रज्ञाकरने उद्धृत किया है उससे भी यही प्रतीत होता है कि दिमागको हेतुवचन परार्थानुमानरूपसे इष्ट था-"ततः 'त्रिरूपलिङ्गाल्यानं परार्थानुमानम्' इति प्रमाणसमुच्चयवृत्तिर्विरुभ्यते ।" प्रमाणवा० अलंक पृ० ५३५। __ इस दिमागप्रोक्त लक्षणका भी संग्रह सिद्धसेनने इन शब्दोंमें किया है - साध्याविनासुको हेतोचो यत् प्रतिपादकं ।" तुलना-“पश्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानम्" प्रशस्त. पृ० ५७७ । मार० ५। "त्रिरूपलिकाख्यानं परार्थानुमानम्" न्यायबि० पृ० ६१ । परी० ३.५५, ५६ । प्रमालक्ष्म का० ५५ । प्रमाणमी० २.१.१-२ । प्रमाणन० ३.२३ । कारिका १४-१६. दिमागने पक्षका लक्षण दो प्रकारसे किया है। एक है न्यायमुखमें और दूसरा है प्रमाणसमुच्चयमें । विशेषता यह है कि न्यायमुखमें स्वयंशब्दवर्जित पक्षलक्षण है तब प्रमाणसमुच्चयमें खयंशब्दसहित । न्यायमुखमें पक्षका लक्षण यह है "साध्यत्वेनेप्सिता पक्षो विरुद्धार्थानियकृतः।" इसके लिये देखो प्रमाणवा० अलं० पृ० ११३, १२८, ३३४ । प्रमाणवा० मनो०८३ । प्रमाणसमुखयमें पक्षका लक्षण इस प्रकार है "सपणेव निर्देश्यः स्वयमियोऽनिराकृतः।" इसके लिये देखो, प्रमाणवा० अलं० ६७६ । प्रमाणवा० मनो० ४. २८ । पक्षप्रयोग कर्तव्य है या नहीं इसके विषयमें दिग्नागका मन्तव्य क्या हो सकता है तत्सम्बन्धी प्रकाश हमें पूर्वोक्त दिमागकथित परार्थानुमानके लक्षणोंसे मिलता है । देखो, कारिका १३ की तुलना। __ न्यायमुखके लक्षणके अनुसार तो पक्षका वचन परार्थानुमानमें होता है ऐसा फलित होता है किन्तु प्रमाणसमुच्चय जो उनके भिन्न भिन्न अनेक ग्रन्थोंके मन्तव्योंका विकसित निष्कर्षमात्र है उसमें तो उन्होंने जो लक्षण परार्थानुमानका किया है उससे यही फलित होता है कि दिमागको पक्षप्रयोग अभिमत नहीं था क्योंकि उसने प्रमाणसमुच्चयमें परार्थानुमानका जो लक्षण किया है उसका अर्थ कुमारिलसे लेकर बादके सभी टीकाकार जो करते हैं उससे यही फलित होता है कि हेतुवचन परार्थ अनुमान है । खयं दिनागने प्रमाणसमुच्चयकी वृत्तिमें त्रिरूपलिङ्गाख्यानको परार्यानुमान कहा है । इसका मतलब यही होगा कि पक्षप्रयोग अनावश्यक है । देखो, पूर्वोक्त १३ वी कारिकाकी तुलना। प्रमाणसमुच्चयके वार्तिककार धर्मकीर्तिने पक्षप्रयोग अनावश्यक बताया है (प्रमाणवा० १.१६-२७ ) वह उनकी खतन्त्र सूझ नहीं किन्तु उन्होंने यह स्पष्ट ही कहा है कि खयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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