Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 483
________________ [१२-१३ निकपलिजसरणे नियमेनानुमोदयः। समतीतापमाणस्य वचनेभ्यक्षवितु॥ नपचनमाजावभ्यक्षं परस्योदेति । ननु 'पश्य मृगो धावति' इति श्यते दर्शनोदयः । ना तत्राप्यनुमानत्यानन्तरत्वात् । तथाहि तदयोन्मुखवायां स पश्यत्येवं नियुज्यते। मया प्रतीतमेतब सामर्थ्यात्प्रतिपादितम् ॥ 'ममिमुखी भव मृगदर्शने' इति नियोमवचनमेव । अमिनुलीमाया यथा मम तथा तवापि । तत एषममिमुखीभवने हेतूनां व्यापार इति सरन् प्रपर्वत इति अनुमानमेव ।" प्रमाणवा० अलं० पृ० ५३४। बौ छों ने परार्थ प्रत्यक्ष इसलिये नहीं माना है कि प्रत्यक्षार्य - खलक्षण-वचनमोचर नहीं। इसके विपरीत जैनों ने प्रत्यक्षगोबरको वाच्य माना है। उसी दृष्टिसे प्रस्तुतमें पराप्रपाकी कल्पना की गई है। अकलंक आदि किसी जैनदार्शनिकने प्रत्यक्षकी परार्यता प्रतिपादित नहीं की है। सिर्फ देव सूरि ने न्यायावतारका आश्रय लेकर परार्थ प्रत्यक्षका वर्णन किया है (स्याद्वादर० पृ० ५५७ ) यह एक आश्चर्य है। म्या य प्रवेश की टीकामें हरिभद्र ने कहा है-“साधनदूषणे एव सामासे परसविदे परावबोधाय, न प्रत्यक्षानुमाने । प्रत्यक्षानुमाने एव सामासे आत्मसंविदे मात्मावबोधाय, न साधनको मात्मसंविफलत्वात् तयोः।" न्यायप्र० वृ० पृ० १०-११।। कारिका १३. दिनागने परार्थ अनुमानका लक्षण दो प्रकारसे किया है एकमें तो हेनुवचनको और दूसरेमें पक्षादिवचनको पराप अनुमान कहा है। उन दोनों प्रकारका समावेश सिबसेनने प्रस्तुत कारिकामें किया है। "पक्षादिषचनानीति साधन" यह न्यायमुखमें पसर्व अनुमानका क्षप है प्रतीका अनुकरण न्यायप्रवेशमें है-यथा "तत्र पतादिवचनानि साधनम्, पसहेतुष्टान्तवावरि मालिकानाममतीतो मतिपायत इति ।" इस लक्षणका ग्रहण सिद्धसेनने इन शब्दोंमें किया है-"तत् पक्षादि. वचनात्मकम्।" प्रमाणसमुच्चयमें परार्थ अनुमानका लक्षण दिमागने किया है कि "परार्थमनुमानं तु खडष्टार्थप्रकाशनम्" इस वाक्यांशमें 'अर्थ' शब्दका अर्थ 'हतु' है ऐसा मीमांसाश्लोकवार्तिकके निम्नपद्यसे सूचित होता है "नच व्याप्रियतेऽन्यत्र वचनं प्रानिकान् प्रति । खनिश्चयाय यो हेतुस्तस्यैव प्रतिपादनात् ॥” पृ० २५३ । इतना ही नहीं किन्तु प्रज्ञाकर और मनोरथनन्दीने दिमागके उक्त लक्षणकी जो व्याख्या की है उससे भी फलित यही होता है कि हेतुवचन परार्थ अनुमान है__ "खेन दृष्टं खदृष्टं वादिप्रतिवादिभ्यां खडष्टस्य इत्यर्थः । यदि प्रालिकास्तेषामपि, [वादे] तेषामधिकारात् ।"तत्र खदृष्टोऽर्थः त्रिरूपम् लिकम् ।" प्रमाणवा० अलं. पृ०५३३ । १.प्रमाणपा० मनो० में उद्धत-पृ०४१३। श्लोकवा० निरा० न्यायरता में उड़त पृ०२५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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