Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 481
________________ परिशिष्ट । [ का० ८-९ "थ एव कल्पितो भाषः परतन्त्रः स एव हि ।" लंका० १०.२९८ । "भ्रान्तिनिमित्तं संकल्पः परतन्त्रस्य लक्षणम् ।" वही १०.१३८ । "तेन प्राह्यग्राहकेण परतन्त्रस्य सदा सर्वकालमत्यन्तरहितता या स परिनिष्पन्नस्वभावः " विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि पृ० ४० । "भ्रान्तेः सन्निभयः परतन्त्रः " महायानसूत्रालंकार पृ० ५८ । "विद्यते भ्रान्तिभावेन यथास्यानं न विद्यते । परतन्त्र यतस्तेन सदसलक्षणो मतः ॥” त्रिस्वभाव निर्देश १२ । २९० "यथा मायायापरिगृहीतं भ्रान्तिनिमित्तं काष्ठलेोष्ट्रादिकं तथाऽभूतपरिकल्पः परतन्त्रः स्वभावो वेदितव्यः । यथा मायाकृतं तस्यां मायायां हस्त्यश्वसुवर्णाद्याकृतिस्तद्भावेन प्रतिभासिता तथा तस्मिन्नभूतपरिकल्पे द्वयभ्रान्तिग्राह्यग्राहकत्वेन प्रतिभासिता परिकल्पितस्वभावाकारा बेदितव्या ।” महायानसूत्रालंकार पृ० १५ । दिमाग ने प्रत्यक्षमें अभ्रान्तपदका ग्रहण नहीं किया है अतएव वह और तदनुसारी अन्य विभ्रमको भी प्रमाण मानते हैं (देखो तस्वसं० का० १३२४ ) उसीको लक्ष्यमें रखकर ही सिद्धसेनने कहा है कि - "भ्रान्तं प्रमाणमित्येतत् विरुद्धं वचनं यतः " - तुलना - "पीतशंखादिबुद्धीनां विभ्रमेपि प्रमाणताम् । अर्थक्रियाऽविसंवादादपरे संप्रचक्षते ॥” तत्त्वसं० का० १३२४ | न्याया० की प्रस्तुत कारिकाओंकी तुलना - न्यायवि० का० ५१-५४, तथा प्रमालक्ष्म १६७ से करना चाहिये । अभिन्न हों। इस कारिकामें कारिका ८- ९, “ विकल्पयोनयः शब्दाः विकल्पाः शब्दयोनयः ।” इत्यादि कारिकाको हरिभद्रने' भदन्त दिनकी कही है। संभव है दिन और दिग्नाग प्रतिपादित सिद्धान्त कि शब्दका संबन्ध बाह्यार्थसे नहीं है, शब्द करते, शब्द विकल्पसे उत्पन्न होते हैं और विकल्पको उत्पन्न करते हैं, आचार्य धर्मकीर्तिने भी अपनाया है और समर्थन किया है । बाह्य अर्थका प्रतिपादन नहीं "अनादिवासनोद्भूत विकल्पपरिनिष्ठितः शब्दार्थः” प्रमाणवा० ३.२०४ | " शब्दार्थः कल्पनाज्ञानविषयत्वेन कल्पितः । धर्मो वस्त्वाश्रयासिद्धिरस्योक्ता न्यायवादिना ॥" वही २११ । Jain Education International "विकल्पवासनोद्भूताः समारोपितगोचराः । जायन्ते बुद्धयस्त केवलं नार्थगोचराः ॥" वही २८६ । उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि शब्द परम अर्थका वाचक कभी नहीं हो सकता । अन्यथा एक ही अर्थ प्रतिपादनमें दार्शनिकोंका विवाद क्यों होता - "परमार्थैकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना । न स्यात् प्रवृत्तिरर्थेषु दर्शनान्तर मेदिषु ॥" वही २०६ | इसी सिद्धान्त विरुद्ध प्रस्तुत कारिकामें 'परमार्थाभिधायिनः' तथा " तत्वोपदेशकृत " विशेषण दिये गये हों तो आश्चर्य नहीं । १. अनेकान्तज० पृ० ३३७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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