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टिप्पणानि ।
"यदि तु व्योमकालाद्याः सन्तः स्युक्ते तथा सति । नातिक्रामन्ति तेऽप्येनं क्षणभङ्गं कृता इव ॥ ३९९ ॥ तथा सन्तो ये नाम ते सर्वे क्षणभङ्गिनः । तद्यथा संस्कृता भाषास्तथासिद्धा अनन्तरम् ॥ ३९२ ॥ सम्तचामी त्ययेष्यन्ते व्योमकालेश्वरादयः । क्षणिकत्ववियोगे तुम सत्तेषां प्रसज्यते ॥ ३९३ ॥ तत्त्वसं० |
१०.११७. पं० ४
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शान्तरक्षितने क्षणिक शब्दका अर्थ भी स्पष्ट करदिया है. "उत्पादानन्तरास्थापि स्वरूपं यच वस्तुमः ।
तदुच्यते क्षणः सोस्ति यस्य तत् क्षणिकं मतम् ॥ ३८८ ॥ असत्यप्यर्थमेदे च सोऽस्यस्येति न बाध्यते । इच्छारश्चितसङ्केतमात्रभाषि हि वाचकम् ॥ ३८९ ॥ तत्त्वसं० ।
अब प्रश्न यह है कि क्या दिना गा दि योगाचार-सौत्रान्तिक बौद्धोंने क्षणिकताका जैसा अर्थ लिया है और उसकी जैसी सर्ववस्तुमें व्याप्ति मानी है, वैसाही अर्थ और उसकी वैसीही व्याप्ति भगवान् बुद्धको अभिप्रेत थी ? ।
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उत्तर स्पष्ट है, कि ऐसा नही था । इस विषयमें प्रथम यह बात ध्यान देनेकी है कि भगवान् बुद्ध ने उत्पाद, स्थिति और व्यय इन तीनोंके भिन्न क्षण माने थे ऐसा अंगुत्तरनिकाय और अभिधर्मग्रन्थोंके देखनेसे प्रतीत होता है। अंगुत्तर में संस्कृतके तीन लक्षण बताये गये हैं। संस्कृत वस्तुका उत्पाद होता है, व्यय होता है और स्थितका अन्यथात्व होता है । इससे फलित होता है कि प्रथम उत्पत्ति फिर जरा और फिर विनाश इस क्रमसे वस्तुमें अनित्यताक्षणिकता सिद्ध है । उत्पत्ति, स्थिति और विनाश एककालिक नहीं । उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके तीन क्षण भिन्न होते हैं ऐसा अभिधम्म त्थ संग्रहमें चित्तकी आयु बताते हुए स्पष्टरूप से कहा है । और चित्त ही सब वस्तुमें चञ्चल अधिक है । अर्थात् चित्तक्षण क्षणिक है इसका मतलब है कि वह तीन क्षणतक है । प्राचीन बौद्धशास्त्रमें मात्र चित्त - नाम ही को योगाचारकी तरह वस्तुसत् माना नहीं है किन्तु नामके अतिरिक्त रूप- बाह्य भौतिक पदार्थ भी - वस्तुसत् माना है और उसकी आयु योगाचारकी तरह एकक्षण नहीं, खसंमत चित्तकी तरह त्रिक्षण नहीं किन्तु १७ क्षण मानी गई है। ये १७ क्षण भी समयके अर्थ में नहीं किन्तु १७ चित्तक्षणके अर्थ लियागया है अर्थात् वस्तुतः एकचित्तक्षण = ३ क्षण होनेसे ५१ क्षणकी आयु रूपकी मानी गई है।
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यदि अभिधम्मसंग कारने जो बताया है वैसा ही भगवान् बुद्धको अभिप्रेत हो तो कहना होगा कि बुद्धसंगत क्षणिकता और योगाचारसंमत क्षणिकतामें महत्वपूर्ण अन्तर है ।
दूसरी बात यह है कि योगाचारसे मी प्राचीन सर्वास्तिवाद है । उस वादमें भी प्राचीन मार्गका अवलंबन दिखाई देता है । सर्वास्तिवादिओंने योगाचार की तरह मात्र विज्ञान - नामको ही वस्तुसत् नही माना किन्तु नाम और रूप दोनोंको पारमार्थिक माना है । इतना ही नहीं
१. "तिणीमाल मिक्सचे संखतस्स संसतक्खणानि । ... उप्पादो पन्नापति, बयो पन्नापति, ठितस्स अम्मयतं पब्जायति ।" अंगुत्तर० तिकनिपात । २. "पाठिति भङ्गयसेन सणसर्व एकविसा नाम । तानि पम सत्तरस चित्तक्खणानि रूपधम्मान आयु।" अभिधम्मस्थलंगहो ४.८ ।
न्या० ३६
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