Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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पृ०६९. पं० १३] टिप्पणानि
२३५ पृ० ६८. पं० २७. 'ननु' बौद्ध स्मरण दिलाता है कि अभाव जनक तो हो नहीं सकता अत एव प्रतिषेधविकल्पका विषय मी हो नहीं सकता यह कहा जा चुका है (पंक्ति १६)।
पृ०६८.५० २७. 'अत्र केचिद' बौद्धों के द्वारा मी मां स क के प्रति किये गये भाक्षेपका उत्तर कोई इस प्रकार देता है कि जनक ही विषय बने यह नियम भावके विषयमें ठीक है । अभाव इस नियमका अपवाद है । बौद्धों को यह मी तो कहा जा सकता है कि तुम्हारे मतमें वस्तु क्षणिक है अत एवं प्राह्य जनक ही हो यह नियम बन नहीं : सकता । क्योंकि जिस प्राधाकार का प्रतिभास हो रहा है वह तो समकालीन होने से ग्राहकका जनक नहीं । जो जनक था वह तो अतीत हो जानेसे ग्राह्य ही नहीं । . पृ० ६९. पं० १. 'तत्रैतवेद' उक्त आक्षेपका उत्तर बौद्ध ने यह दिया कि ज्ञान और शेयमें ग्राह्यग्राहकभाव सन्दंशायोगोलकवत् नहीं जिससे समकालीनता अपेक्षित हो किन्तु प्राह्य उसे कहा जाता है जो ज्ञानमें खाकारका जनन-खाकारका समर्पण करे । अभावका कोई आकार ही नहीं तो खाकारका समर्पण कैसे ! । इस विषयमें देखो प्रमाण वार्तिक की निम्न कारिकाएँ
"हेतुभाषारते नान्या प्राधता नाम काचन । तत्र बुद्धिर्यदाकारा तस्यास्तद्वाहमुच्यते ॥ २२४॥ मित्रकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां पितुः। हेतुत्वमेव युक्तिवाशानकारार्पणक्षमम् ॥ २४७॥ कार्य घनेकहेतुत्वेप्यनुकुर्षदुदेति यत् । ततेनाप्यत्र तद्रूपं गृहीतमिति चोच्यते ॥ २४८॥ सर्वमेव हि विज्ञानं विषयेभ्यः समुद्भवन् । तदन्यस्यापि हेतुत्वे कथञ्चिद् विषयाकृति ॥ ३६८ ॥ यथैवाहारकालादेहेतुत्वेऽपत्यजन्मनि । पित्रोस्तदेकस्याकार धचे नान्यस्य कस्यचिव ॥ ३१९॥ रूपादेम्वेतसवमविशुद्धधियं प्रति ।
प्राह्यलक्षणचिन्तेयमचिम्त्या योगिनां गतिः ॥ ५३२॥" प्रमाणवा० २१ "नहि संवंशायोगोलयोरिष शानपदार्थयोद्यप्राहकमावः।" मनो० २.२४७ ।
पृ० ३९. पं० ५. 'अत्र वदन्ति' यह मी मां स कों का कथन है । इस कथनमें जैनों का मी ऐकमत्य है । क्योंकि उनके मतमें मी ज्ञान और ज्ञेयमें कार्यकारणभाव नहीं।
पृ० ६९. पं०९. 'मा भूव' बौद्ध का कथन है। पृ० ६९. पं० १०. 'एतदप्यसत्' मी मां स क का कथन है । पृ० ६९. पं०.११. 'कः पुनः बौद्ध का प्रश्न है । पृ० ६९. पं० १२. 'न कश्चित्' मीमांसकका उत्तर ।
पृ. ६९. पं० १३. 'तदकार्य ज्ञान और ज्ञेयमें कार्यकारणभाव नहीं किन्तु ज्ञानकी विशेष योग्यताके कारण ही प्रतिनियत विषयव्यवस्था हो जाती है ऐसा जैनाचा यों का मत प्रस्तुतमें तुलनीय है
"पथासं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्तं विज्ञानस्य , बहिरादयः।
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