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पृ० ७९. पं० २२]
टिप्पणानि ।
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निरास करे यह आश्वर्यकी बात है । समी जैन और ने या विक - वैशेषिक आचार्यने अव्यभिचारि होने पर उसका प्रामाण्य स्वीकृत किया ही है । उसे मी शान्ख्या चार्य ने अप्रमाण बतला कर मानसप्रत्यक्ष ज्ञानकी कोटिसे बहिर्भूत कर दिया । जैसा पहले कहा गया है अन्य जैन दार्शनिकोंने खमज्ञानको भी अव्यभिचारि होने पर प्रमाण माना है। तब शा
चार्य ने उसे अप्रमाण बतलाकर मानसप्रत्यक्ष से बहिर्भूत कर दिया । इस प्रकार लसंवेदनको ही मानसप्रत्यक्ष सिद्ध करनेकी धूनमें शान्ख्या चार्य ने अनेक पूर्वस्थापित मान्यताओंका उत्थापन किया है । यह कहाँ तक ठीक है इसका निर्णय विद्वान् करें ।
सभी ज्ञान स्वसंविदित होते हैं अत एव जैन दार्शनिकों का स्पष्ट मम्तव्य है कि संदेदनकी दृष्टिसे सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अर्थात् सभी स्वसंवेदन चाहे प्रत्यक्षका हो या परोक्षका प्रत्यक्ष ही है । किन्तु सभी खसंवेदनों का समावेश मानसप्रत्यक्ष में- अनिन्द्रियप्रत्यक्षमें करना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । क्योंकि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका पारमार्थिक प्रत्यक्षका स्वसंवेदन मानस कमी भी नहीं ।
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पृ० ७७. पं० २१. 'उक्तम्' देखो, पृ० ७६. पं० २६ ।
पृ० ७७. पं० २५. 'पञ्चभिः' इस कारिकाका पूर्वार्ध प्रमाणवा० २.१३६ वीं कारिकाका उत्तरार्ध है । टीकाके अनुसार 'भात्यव्यवहितेव या' ऐसा पाठ यहाँ होना चाहिए । यह अशुद्धि 'च' और 'व' के लेखनसादृश्यके कारण हुई है।
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ब्याख्या – “सङ्क्रान्तकान्तावदन प्रतिविम्बस्य सहकारसुगन्धिनः शीतस्य भ्रममरोपगीतस्य स्वादुन मधुनः सार्वगुणानुभवकाले प्रसरत्संकल्पजन्मनां यून या मतिः पक्षभिरिन्द्रियबुद्धिभिर्व्यवधानेपि त्वत्पक्षेऽव्यवहितेव समकालेव भाति ।" मनो० २.१३६ ।
पृ० ७७. पं० २६. [ प्रमा.... ]' यह कोष्ठक रद करना चाहिए ।
पृ० ७८. पं० २. ‘अक्रमम्' सर्वज्ञ के ज्ञान-दर्शन-उपयोगकी क्रमिकता, अक्रमिकता और एकता के विषयमें जैन दार्शनिकोंकी विप्रतिपत्तिके इतिहासके जिज्ञासुओंको ज्ञान बिन्दु प्रकरण की प्रस्तावना देखना चाहिए ।
पृ० ७८. पं० १६. 'एकांशेन' अकलंक ने इन्द्रियज ज्ञानको स्पष्ट होते हुए मी - प्रादेशिक प्रत्यक्ष कहा है उसी अर्थ में शान्त्या चार्य ने प्रस्तुतमें इन्द्रियज ज्ञानको एकांशव्यवसायक कहा है - लघी० स्व० ६१ । " यद्देशतोऽर्थज्ञानं तदिन्द्रियाभ्यक्षमुच्यते ॥" न्यायवि० ४ ।
पृ० ७८. पं० २६. 'बाह्यार्थाभावात् ' विज्ञानवादी बौद्धों ने बाद्यार्थके अभावको सिद्ध किया है । इस विषयकी चर्चा के लिये देखो, प्रमाणवा० २.३२० से । तस्वसं ० का ० १९६७ । श्लोकवा ० निरा० । बृहती । न्यायमं० वि० पृ० ५३६ । अष्टस० पृ० २४२ | सन्मति ० टी० पृ० ३४९ । न्यायकु० पृ० ११९ । स्याद्वादर० पृ० १४९ ।
पृ० ७९. पं० ३. 'उपलब्धि:' देखो, “उपलम्भः सतोच्यते" प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० ९५ | सन्मति० टी० पृ० २८७ ।
पृ. ७९. पं० २२. 'प्रकाशायोगात् ' तुलना - " अदृष्टत्वात्, जडस्य प्रकाशायोगाच इत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्रता समुपजायते तथा हि-असावप्येवं वकुं समर्थ:
म्या० ३२
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