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टिप्पणानि । है। क्योंकि ज पन्त की तरह ऐकान्तिक भेदवाद मानने पर बौछकत भाक्षेपोंसे रखना संभव ही नहीं।
खयं जयंत ने उन आक्षेपोंका जो जवाब दिया है उसमें उसने तर्कसे काम न लेकर केवल अपनी मान्यतासे येन केन प्रकारेण चिपके रहनेका ही प्रयत किया है। किसी मी तटस व्यक्तिको जयन्तकृत समाधानसे संतोष हो नहीं सकता । अत एव बौद्धों के आक्षेपोंसे डर कर ही सही पर यदि मीमांसकों ने सामान्यके बारेमें नै या यि कों के विरुद्ध कुछ नया मार्ग लिया है तो उसमें सत्यके निकट पहुंचनेका प्रयन ही है ऐसा समझना चाहिए।
कु मा रिल ने वस्तुको ही सामान्यविशेषात्मक माना है । उसका कहना है कि सामान्यको छोड विशेषका, और विशेषको छोड सामान्यका सद्भाव नहीं हो सकता। अत एव वस्तुको सामान्यविशेष उभयात्मक ही मानना चाहिए । उसे वेदान्ति की तरह मात्र सामान्यरूप या बौदों की तरह मात्र विशेषरूप नहीं माना जा सकता । और न नै या विकों तथा वैशेषिकों की तरह सामान्य और विशेषको अत्यन्त भिन्न ही माना जा सकता है। ऐसा माननेका मुख्य कारण यही है कि हमें जब वस्तुविषयक बुद्धि होती है तब वह बुद्धि व्यावृत्ति और अनुगमास्मक होती है। यदि वस्तु व्यावृत्यनुगमात्मक न होती तो तजन्य वैसी बुद्धि मी नहीं होती। अत एक वस्तुको सामान्यविशेषात्मक ही मानना चाहिए।
जब वस्तुसे सामान्य और विशेषका अभेद हो गया तब नै या यि कों के समान मी मांसक सामान्य और विशेषका परस्परमें आयन्तिक मेद मान नहीं सकते । अत एष कुमारिल ने सामान्य और विशेषमें आत्यन्तिक भेद का निराकरण किया है। उसके मतमें सामान्य विशेषामक है और विशेष सामान्यात्मक है क्योंकि निर्विशेष सामान्य और निःसामान्य विशेषका जब सद्भाव ही नहीं तब अर्यात ही फलित हो जाता है कि सामान्य और लिशेषका आत्यन्तिक मेद नहीं हैं।
जैसे जयंतने आकाशके समान सामान्यको व्यापक सिद्ध किया है उसी प्रकार कु मा रिट मे मी उस मतका विकल्पसे समर्थन तो किया है किन्तु उसने अपना मत यही सिर किया है कि उसे पिण्डमत मानना चाहिए, व्यापक नहीं । प्रायः यह देखा गया है कि दार्शनिक पीके समय कुमाल वेदप्रामाण्यमें अबाधक ऐसे परस्पर विरोधी मतोंका सीकार करता है। क्योंकि उसका मुख्य उद्देश है वेदप्रामाण्यकी रक्षा । अन्य चर्चा तो प्रासंगिक है। बरस ऐसी प्रासंगिक चर्चाके समय कुमारिल परस्पर विरोधी मन्तव्योंका स्वीकार और समर्थन कर लेता है, जब कि विरोधी दोनो मन्तव्योंमें तर्कका सहारा हो । यही कारण है कि प्रस्तुतने उसने सामान्यको व्यापक और अव्यापक माना।
..न्यायमंदि०१० ३११। २.निर्विक्षेपं सामान्य मानिसबदाबानापतीशिवहरेकदि।" मोकमा मारुति०१०।.."सानिमारल्यबुकमारली
साबले यमदेव विकासाससिच्चाति" बही५..."तेवामन्तमेयोनिमाविषयो।" बही ११। बही २६-३०। .. 'मिन्द सामाजालाराम नाकाबबाहितियायाम नाम सिंचन"बी२५.
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