Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 456
________________ १० ९१.५० २१] टिप्पणानि । अन्य जैमाचार्यों ने शानस्या चार्य निर्दिष्ट युक्तिका प्रयोग साक्षात् फल और प्रमाणके अमेदको सिद्ध करनेमें नहीं किन्तु व्यवहित अत एव भिन्न ऐसी हानादि बुद्धिओंका प्रमाणसे कथंचिदमेद सिद्ध करने किया है यह खास ध्यान देनेकी बात है। दूसरी यह मी बात मार्केकी है कि अन्य जैनाचार्य भेद और अमैद दोनोंको पारमार्थिक मानते हैं और प्रमाण तथा फलके मेदको काल्पनिक या सांवृतिक माननेवाले बौद्धों का' निराकरण करते हैं, तब शन्या चार्य बौद्ध पक्षपाती होकर अभेदको पारमार्थिक मानते हैं और भेदको काल्पनिक, यह बात उनके ऊपर निर्दिष्ट उद्धरणसे स्पष्ट है। यद्यपि प्रस्तुत फलवर्णन प्रसंगमें शान्त्या चार्य ने व्यवहित फलोंका वर्णन नहीं किया किन्तु उनको व्यवहित फल सर्वथा अमान्य था ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वार्तिकके प्रारंभकी कारिका (१) "हिताहितार्थसंप्राप्तित्यागयोर्यनिवन्धनम् । तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥" में स्पष्ट ही हानोपादान क्रिया प्रमाणको कारण माना है। पृ० ९१.५० ११. 'यदि भिमविषयम्' तुलना "नेटो विषयमेवोऽपि क्रियासाधनयोईयोः। एकार्थत्वे द्वयं व्यर्थ न च स्यात् क्रमभाविता॥३१४॥ तस्माद्विषयमेदोऽपि न ॥ ३५१॥" प्रमाणवा० २। "मिनप्रमाणफलवादिन प्रति बौखेनोकम् यदि प्रमाषफलयोमेदोऽभ्युपगम्यते तदा मित्रविषयत्वं स्यात् प्रमाणफलयोः । न चैतघुक्तम् । न हि परश्वादिके छेदने खदिरमाते सति पलाशे छेदो भवति । तस्मात् प्रमाणफलयोरेकविषयत्वादमेद इति ।" तत्वसं० पं० पृ० ३९९ । पृ० ९४. पं० १९. 'न हि प्रमाणम्' तुलना- "तथा हिनशानं जनयदय प्रापयति । मपि तु अर्थे पुरुषं प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम् । प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव ।न हि पुरुषं हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम् ।" न्यायबि० टी० पृ०५। "नहि मानेन अर्थो हस्ते गृहीत्वाऽन्यतो निवर्तनीयः।" हेतु० टी० पृ० १९६ । प्रमेयक० पृ० २५ । स्याद्वादर• पृ० ४४.। पृ० ९४. पं० २३. 'आकार प्रमाणम्' सौत्रान्तिक बौद्ध बाह्यार्थवादी हैं । उनके मतसे श्राकार, मेयरूपता, अर्थरूपता, सारूप्य, ताप्य, सादृश्य, ज्ञानात्मभूतविशेष, अनाकारव्यावृत्ति इत्यादि शब्दोंसे प्रतिपापं ज्ञानांश प्रमाण है। प्रमाण वा र्तिक में सारूप्यको प्रमाण ..परी०५.३ । प्रमाणन०५.८-११ । २. “सा च तस्यात्मभूतैव तेन नार्यान्तरं फलम् ॥३०॥ क्रियाकरणयोरेक्यविरोष इति चेदसत् । धर्ममेवाभ्युपगमाद्वस्वमिममितीप्यते ॥३८॥ एवंप्रकारा सर्वैर कियाकारकसंस्थितिः॥१९॥" प्रमाणवा०२॥"धर्मभेदस्य ज्यावृत्युपकल्पित" मनो। "धानुदर्शन मेयमानफलस्थितिः। क्रियतेऽविचमानापि प्रामग्राहकसंविदाम् ॥ ३५७ ॥ अन्यथैकस भाषख नानारूपावभासिनः । सत्यं कथं स्युराकारातदेकरवस्य हानितः ॥ ३५८ ॥" प्रमाणवा०२॥ ३. अष्टस० पृ० २८४ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२६ । प्रमेयक पृ० ६२७ । प्रमाणन०६.२१ । न्या. ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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