Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 455
________________ टिप्पणानि । [१० ९३. पं० २९आचार्य विथा नन्द ने कहा है कि धर्म की र्तिकृत वह आरोप अनेकान्तवादमें नहीं किन्तु अभावका अपहव करनेवाले सांख्यों के मतमें युक्तिसंगत हो सकता है- अष्टस० पृ० ९३ । पृ० ९३. पं० २९. 'सप्तमङ्गी' तुलना-"नात्र दोषा, गुणप्रधानव्यवस्थाविशेषप्रति. पादनार्थत्वात् सर्वेषां मनानां प्रयोगोऽर्थवान् । तयथा द्रव्यार्थिकप्राधान्ये पर्यायगुणभावे चप्रथमः। पर्यायार्थिकस्य प्राधान्ये द्रव्यगुणभावे च द्वितीयः ।" इत्यादि-राजवा० ५० १८१ | तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२८ । सन्मति० टी० पृ० ४४१।। पृ० ९४. पं० ५. 'फलविप्रतिपत्तिम्' जैन और जैने तर दार्शनिकोंमें प्रमाण और उसके फलके विषयमें जो मतमेद है उसके विवेचनके लिये देखो, प्रमाणमी० भाषाटि. १०६६ । प्रस्तुतमें अन्य जै ना चायों से शान्त्या चार्य के मतमें जो विलक्षणता है उसीका निर्देश करना अमीष्ट है। न्या यावतार (का० २८) और आस मीमांसा (का० १०२) दोनोंमें अज्ञाननाशको प्रमाणका साक्षात् फल कहा गया है । अज्ञाननाश ही खपरव्यवसाय है ऐसा टीकाकारोंने स्पष्टीकरण किया है । अत एव प्रमाण और फलका कथंचित् अभेद है ऐसा फलित होता हैयह जैनाचायों का मत है। कथंचिदमिन्न अज्ञाननिवृत्तिरूप फलके अलावा जैनाचा यों ने कथंचिदिन ऐसी हानोपादनोपेक्षा बुद्धिओंको मी प्रमाणका व्यवहित फल माना है-न्याया० २८ । आप्तमी० १०२। किन्तु प्रस्तुतमें वार्तिक और वृत्तिमें शान्त्या चार्य ने प्रमाण और फलके अमेद पक्षका ही वर्णन किया है। हानादि व्यवहित फलोंके विषयमें मौनावलम्बन किया है । प्रस्तुत वार्तिक न्या यावतारके ऊपर है यह तो खयं ग्रन्थकारने प्रारंभमें कह दिया है तब प्रमाणफलके साक्षात् और परंपरासे दो प्रकारोंका वर्णन करना क्रमप्राप्त था किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने ऐसा न करके प्रमाणके साक्षात् फलका ही वर्णन किया । इससे वार्तिककारका सूत्रकारसे सातव्य ही चोतित होता है । मात्र अभेदपक्षका वर्णन करके मी शान्या चार्य ने अन्य जैनाचा योंके भेदाभेद पक्षकी. उपेक्षा ही की है । उस उपेक्षाका कारण उनके ऊपर विज्ञान वादी बौद्धोंका प्रभाव ही है ऐसा समजना चाहिए । क्योंकि विज्ञान वादी के ही मतसे प्रमाण और फलका पारमार्थिक भेद नहीं । पारमार्थिक दृष्टिसे उन दोनोंका अमेद ही है। इसी विचारको उन्होंने जैन दृष्टिसे अपनानेका प्रयत्न किया है । जैन दृष्टिसे इस लिये कि जैनाचार्यों ने प्रमाण और फलका अमेद जो माना है वह एक आत्मामें प्रमाण और फलका बमेद होनेके कारण । अर्थात् एक ही आत्मा प्रमाण और फलरूपसे परिणत होता है मत एव प्रमाण और फलका अमेद है । बौद्धों ने आत्मा तो माना नहीं है । उनके मतसे एक ही ज्ञान अपेक्षामेदसे, व्यावृत्तिके मेदसे प्रमाण और फल कहा जाता है । अत एव शान्त्या चार्य ने उक बौद्ध मन्तव्यको इन शब्दोंमें जैन दृष्टि से संगत करनेका प्रयत्न किया है "नात्मनः परमार्थेन प्रमाणं भिद्यते किन्तु आत्मैव शानावरणक्षयोपशमवान् प्रमाणं स एक प्रतीतिरूपत्वात् फल मिति ।" पृ० ९४. पं० २१ । ..प्रमेयक० पृ० ६२५ । स्थाबादर० पृ०९९३,९९८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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