Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
View full book text
________________
२५॥
टिप्पणानि ।
[१० ८१. पं० १कुमा रिल ने पिण्डसे जातिका तादात्म्य माना है' अत एव अर्थात् ही उसके मतमें नै या यिक-वैशेषिकों के समान सामान्यका ऐकान्तिक एकत्व नहीं किन्तु वह एक और अनेकरूप है। एक ही वस्तुकी एकता और अनेकतामें दृष्टिभेदसे विचार किया जाय तो कोई विरोध नही ऐसा कुमारिल का मन्तव्य है । और सामान्य तथा विशेषमें भेदाभेद मानने पर भी कोई विरोध नहीं यह भी कु मा रिल ने माना है।
गोत्व जाति स्वरूपसे तो एक ही है किन्तु शाबलेयात्मक गोत्वसे बाहुलेयात्मक गोत्वका मेद है। इस प्रकार जातिमें एकता स्वरूपकृत है और अनेकता व्यक्तिमेदकृत है। इसी प्रकार विशेषोंमें भी एकता और अनेकता निर्विरोध सिद्ध हो सकती है । व्यक्ति व्यक्त्यन्तरसे खरूपसे मिन है किन्तु जात्यपेक्षया अभिन्न ही है । इस प्रकार अपेक्षामेदसे विचार किया जाय तो विरोधको अवकाश नहीं रहता ऐसा कु मा रिल का मन्तव्य है। ___ वस्तु उभयात्मक होते हुए भी कभी सामान्य गौण हो जाता है और विशेषका प्रतिभास होता है, कभी विशेष गौण हो जाता है और सामान्यका प्रतिमास होता है । किन्तु जब वस्तुका युगपत् प्रतिभास होता है तब न तो मेदबुद्धि ही होती है और न अभेदबुद्धि ही किन्तु अखण्ड का भान होता है । यह अवस्था निर्विकल्पज्ञानके समय होती है । ऐसी अवस्थामें वह वस्तु शब्दागोचर होती है । इससे हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वस्तु न तो केवल सामान्यरूप है और न केवल विशेषरूप किन्तु शबल है।
जाति और व्यक्तिका जब मेदामेद है तब अर्थात् ही फलित होता है कि जाति को वै शे षिकों की तरह मी मां स क एकान्त निल्य नही मान सकते । पार्थ सा र पि का कहना है कि जाति निल्स भी है और अनिस्य भी। जाति जातिरूपसे नित्य है और व्यक्तिरूपसे अनित्य है। सिर्फ जाति ही नित्यानित्य हो सो बात नहीं । व्यक्ति भी जातिरूपसे निल्य है और खरूपसे बनिस्स है।
नै या यि कों के समान जाति प्रत्यक्षग्राह्य है ऐसा कुमारिलने माना है।
प्रा भाकरों की जातिविषयक मान्यता और कुमारिल की तद्विषयक मान्यतामें अत्यधिक भन्तर है। प्रा भाकरों की मान्यता नै या यि कों के सन्निकट है जब कि भाट्टों की मान्यता बनेकान्तवादसे रंगी हुई है । मूलतः मी मां सा दर्शन का विषय तत्त्वज्ञान नहीं । किन्तु कर्मकाण्डोपयोगि वेदमत्रोंके विनियोगका विचार करना है । अतएव मी मां स क टीकाकारोंके सामने वैशेषिक या सांख्यों के समान कोई तत्त्वविषयक सुनिश्चित परंपरा नहीं । यही कारण है कि तत्त्वविचारमें कुमा रिल और प्रामाकरोंका मार्ग अत्यन्त भिन्न होगया । जिसको जिस
.."कमात् सामाविमस्खेव गोत्वं यमात् तदात्मकम् । वादात्म्यमय कमाघे सभावादिति गम्यवाम् ॥" यही ४७। २. "विरोधस्तावदेकाम्वाद्वक्तुमत्र म युज्यते । सामान्यानन्यविज्ञाते विशेष
काचिता । सामान्यानम्बवृत्तित्वं विशेषात्मैकमावतः। एव परिहर्तव्या मित्राभिवत्वकल्पना । केनविचाममैकरवं नानात्वं चाख केनचित् । सामान्यस्य यो मेले तस्य विशेषतः॥ दर्शयिस्वाभ्युपेतर्य विशेष जातिवः । वही ५४-५७।३."एकस्बेऽप्याकृतेर्यद्वबाहुस्वं व्यक्त्यपेक्षया बहुवे हि बाबरेकर जात्यपेक्षया । एकानेकामिधाने च शब्दाः लियतशतयः॥" वही वन०८५,८६। ..मलोकवा०मा०५९-६३। ५. शामंदी०पू०१०१। ६.लोकवा०वन०२५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org