Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 441
________________ टिप्पणानि । [ ४० ८०.०६ प्रकाशते विधानपद, जडत्वहानिप्रसंगात् । नापि परतः प्रकाशमानं श्रीवादिव्यतिरिकस्य विज्ञानस्यासंवेदनेन असस्वाद ।" सन्मति० टी० पृ० ८१ । पृ० ८०० पं० ६ 'सहोपलम्भनियमः' तुलना-- " सहोपलम्भनियमाद मेदो वीकतजियोः ।" उद्धृत - स्याद्वादर० पृ० १४९ । “सकृत् संवेद्यमानस्य नियमेन धिया सह । विषय ततोऽन्यत्वं केनाकारेण सिद्ध्यति ।" प्रमाणवा० २.३८८ । तत्त्वसं० का● २०३०-३१ । निराकरणके लिये देखो ० तत्त्वो० पृ० १०२ । भामती २.२.२८ । अष्टस० पृ० २४२ | न्यायकु पू० १२२ । पू० ८०० पं० ८० 'निरालम्बना!' तुलना - "अत एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययस्वात् लमप्रत्ययवदिति ।" प्रमाणवा० अलं० मु० पू० २२ । पू० ८०. पं० २४. 'सविकल्पकसिद्धी' देखो, पृ० ८१. पं० १६. से । १५० पृ० ८०. पं० ३१. 'निरस्तम्' देखो पृ० ३४. पं० १६ । पृ० ८१. पं० १. 'सामान्यम्' भारतीय दार्शनिकोंमें सामान्यके विषयमें निम्नलिखित पक्ष हैं (१) बौद्धों का अवस्तुरूपसामान्यवाद । (२) वैशेषिका दिका भिन्नसामान्यवाद । (३) सांख्या दि का अभिन्नसामान्यवाद । (४) मी मां स क का भिन्नाभिन्नसामान्यवाद । (५) जैनों का अनेकान्तात्मक सामान्यवाद । । सामान्यके विषय में चार्वाक की क्या राय है इसका निर्णय करना कठिन है । चार्वा को का एक मात्र उपलब्ध प्रन्य त स्वो पल व सिंह है । उसमें प्रसंगसे भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न इन तीनों पक्षोंको लेकर सामान्यका खण्डन किया गया है'। इससे यह फलित होता है कि जिन दार्शनिकोंने सामान्य को वस्तु सत् माना है उन समीका खण्डन करना प्रन्धकारको उक प्रसंग में अमीष्ट है। वस्तुतः बात यह है कि बौद्ध दलीलोंका आश्रय लेकर प्रन्थकारने वस्तु सद् सामान्यका खण्डन किया है। और अन्यत्र बौद्ध प्रत्यक्षलक्षण परीक्षाप्रसंग में सामान्यको काल्पनिक सिद्ध करनेके लिये प्रदत्त सभी बौद्ध युक्तियों का भी निरास किया है। इस प्रकार किसीकी दलीलें ठीक नहीं है - यही दिखाकर ग्रन्थकारने अपने वक्तव्य त खोप लव को पुष्ट किया है। उनका ध्येय किसी वस्तुका निरूपण नहीं किन्तु किसी स्थिर मान्यताका खण्डन ही है। अत एव वा व क संमत सामान्य कैसा है इस विषयमें मौनाश्रयण ही अच्छा है। अन्य समी दार्शनिक सामान्यके प्रतिभासको तो स्वीकार करते हैं । अत एव उस प्रतिभासके किसी न किसी प्रकारके निमित्त - सामान्यके बारेमें तो कोई विवाद नहीं" । किन्तु उस निमित्तभूत सामान्यका स्वरूप क्या हो इसी विषयमें दार्शनिकोंमें विवाद हैं । १. यह वाक्य दिमाग का हो सकता है। क्योंकि कमल शी क ने इसे आचार्यय प्रयोग कहा हैतत्वसं० पृ० ५६७ ॥ २. तत्त्वो० पृ० ४ । ३. तस्वो० पृ० ४६ । ४. "सामान्यं तच पिण्ड:मितं बल्कचित्सामान्यं शब्दचरम् । सर्व एवेच्छतीत्येवमविरोधोऽत्र ०३,४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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