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टिप्पणानि ।
०६८. पं० १२]
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किन्तु यदि पुरुष देखनेके लिये प्रवृत्त ही नहीं होता है तो वह योग्यदेशस्थ दृश्यको भी नहीं देखता क्योंकि दृश्य पदार्थ तो अपने विशेष स्वभावके साथ मौजूद है परंतु प्रायान्तरका साकम्य नहीं हुआ और वह विप्रकृष्टको भी नहीं देखता क्योंकि उसमें तो दोनों ब्रावों की कमी है।
फलित यह होता है कि दर्शनके लिये प्रवृद्ध पुरुषकी अपेक्षासे कोई भी पदार्थ प्रमयान्तर से free होनेके कारण दिखाई न दे यह बात नहीं । स्वभावविशेषकी विकलताके कारण ही न दिखाई दे यह संभव है। तथा देखनेके लिये अप्रवृत पुरुषकी अपेक्षासे दृश्य पदार्थ समयान्तरकी विकलताके कारण और अदृश्यपदार्थ उभयकी विकलताके कारण दिखाई नहीं देते हैं - न्यायबि० टी० पृ० ३७ ।
धर्म कीर्ति ने पिशाचादिके अतिरिक्त सर्वज्ञ और वीतरागको भी विप्रकृष्ट पदार्थ मांगा है । अत एव उनका कहना है कि इन्द्रियगम्य वचनादि जैसे किसी भी हेतुके साथ अतीन्द्रिय सर्वज्ञ और वीतरागका अम्बय सन्दिग्ध ही होगा । व्यतिरेककी असिद्धि तो हो सकती है क्योंकि अवीतराग और असर्वच अस्मदादिमें वचनव्यावृत्ति नहीं। किसी भी हेतुके लिये अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूपोंकी सिद्धि आवश्यक है । वचनादि हेतुमें अन्वय सन्दिग्ध है और व्यतिरेक असिद्ध । अत एव वह अनैकान्तिक हेत्वाभास होगा - न्यायवि० पृ० १०५ ।
किन्तु समन्तभद्र ने अर्हत् की निर्दोषता - बीतरागतामें युक्तिशाखाविरोधि वचनको ही हेतु कहा है और इसीका समर्थन अकलंक और विद्या नन्द ने किया है- आप्तमी ० का ० ६ ।
समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि विप्रकर्षिता मी आपेक्षिक है । हमारे लिये परमाणु आदि भले ही विप्रकृष्ट हों किन्तु उनका प्रत्यक्ष किसी न किसीको तो अवश्य ही होगा । जिसे होगा नही आई है, वीतराग है। इसी का समर्थन अ क लं का दि ने किया है - वही का० ५ ।
पृ० ६८. पं० ५. 'तद्योग्यत्वम्' इसके बाद पूर्णविराम चिह्न नहीं चाहिए ।
पृ० ६८ ६० ६. 'समारोपितम् - तुलना "अथ यो यत्र नास्ति स कथं स दृश्यः । दृश्यत्व समारोपाद् मसमपि दृश्य उच्यते । यचैवं संभाव्यते यद्यसावत्र भवेद हृदय एव भवेदिति स तत्राविद्यमानोपि दृश्यः- समारोप्यः । का पर्व संभाव्यः ॥ । यस समग्रानि सालम्बनदर्शनकारणानि भवन्ति । कदा च तानि समप्राणि गम्यन्ते १ । यदा एकज्ञानसंसर्गिवस्त्वन्तरोपलम्भः । एकेन्द्रियज्ञानप्रायं लोचनादिमणिधानामिमुकं वस्तुइयमन्योन्यापेक्षमेकज्ञानसंसर्गि कथ्यते । तयोर्हि संतोनकनियता भवति प्रतिपत्तिः, योग्यताया द्वयोरपि अनिशित्वात् । तमादेकज्ञानसंसर्गिविज्यमाने सत्येकसिन् इतरत् समप्रदर्शनसामग्रीकं यदि भवेद् दृश्यमेव भवेदिति संमाणितं हयमारोप्यते ।" न्यायवि० टी० पृ० ३६ ।
० ६८. पं० ८. 'योग्यताखभावः' पदच्छेद करके 'योग्यता खभाव:' इस प्रकार पढें । पृ० ६८. पं० १०. ' अत्राहु:' बौद्ध ने जब' अभावको भावाव्यतिरिक्त सिद्ध करके अनुपलब्धिसे असद्वयवहारकी उपपत्ति मानकर अभाव प्रमाणका पार्थक्य निषिद्ध किया तब पुनः मीमांसक यहाँसे अपना पक्ष रखता है ।
पृ० १८. १० १२. 'तत्रैतत् स्यात्' यह शंका बौद्ध की है।
न्या० ३०
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