Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 433
________________ टिप्पणानि । [पृ० ७४. पं० १७लौकिक प्रत्यक्ष सविकल्प और निर्विकल्प दोनों प्रकारका होता है जब कि अलौकिक एक सविकल्पकरूप ही होता है। ___धर्म की र्ति ने प्रत्यक्षके चार भेद किये हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन और बोगिप्रत्यक्ष' । ये चारों ही निर्विकल्प होते हैं । प्रत्यक्षका यह विभाजन मी अधिपतिकी प्रधानता को लक्ष्यमें रख कर किया गया है । इन चार भेदोंमें खसंवेदन एक ऐसा भेद है जो खरूपबोधक है बाकीके तीन साधनभेदसे भिन्न हैं। प्राभा करों ने प्रत्यक्षका मेद विषयके भेदसे किया है । प्रमेयप्रत्यक्ष, प्रमातृप्रत्यक्ष और प्रमितिप्रत्यक्ष ऐसे प्रत्यक्षके तीन भेद शा लि क नाथ ने गिनाये हैं उससे स्पष्ट है कि शा लिकनाथ प्रत्यक्षके मैदका आधार विषयमेद मानता है । उसने प्रमेयप्रत्यक्षके दो भेद किये हैं - सविकल्प और निर्विकल्प । उसके मतमें प्रमेय हैं - द्रव्य, गुण और जाति । उन्हीके साथ इन्द्रियसन्निकर्षसे जो ज्ञान होगा वह प्रमेयप्रत्यक्ष है। और वह निर्विकल्परूप और सविकल्परूप दो प्रकारका है। ___ प्राभा करों की मान्यता है कि सभी प्रकारकी प्रतीतिओंमें चाहे वह प्रत्यक्ष हो, अनुमिति या स्मरणरूप हो, आत्माका तो प्रत्यक्ष ही होता है । ऐसी कोई प्रतीति हो नहीं सकती जिसमें विषयका प्रतिभास हो किन्तु आत्माका प्रत्यक्ष न हो। अत एव प्रमाताकी दृष्टिसे समी ज्ञानप्रत्यक्ष या परोक्ष-प्रत्यक्ष ही हैं । किन्तु यदि प्रमेयकी दृष्टिसे ज्ञानका विभाजन किया जाय तब यदि प्रमेय परोक्ष हो तो ज्ञान भी परोक्ष कहा जायगा और जब प्रमेय प्रत्यक्ष होगा प्रतीति मी प्रत्यक्ष कही जायगी । अत एव प्रमाणभेदकी व्यवस्थाका आधार प्राभा करों के मतानुसार प्रमेयकी प्रत्यक्षता या परोक्षता है । प्रमाता तो सभी प्रतीतिओंमें प्रत्यक्ष ही है। - प्राभाकरों का कहना है कि प्रमाताकी तरह प्रमिति भी प्रत्यक्ष होती ही है । फर्क यह है कि प्रमेय और प्रमाता को प्रत्यक्ष करनेवाली प्रतीति उन दोनोंसे भिन्न होती है । किन्तु प्रमिति को प्रत्यक्ष करनेवाली प्रतीति भिन्न नहीं किन्तु अभिन्न है । अर्थात् प्रतीति खयं प्रत्यक्ष होती है । और प्रमाता और प्रमेय अन्यसे प्रत्यक्ष होते हैं । मेय और माता तो अप्रकाशखभाव हैं अत एव उनके प्रत्यक्षके लिये प्रकाशकी आवश्यकता है। किन्तु प्रतीति-प्रकाश तो खयं प्रकाशखभाव है अत एव अन्य प्रकाशकी अपेक्षा नहीं। प्रकाश होकरके अप्रकाशित रहे यह संभव ही नहीं । उसकी सत्ता ही प्रकाशरूप है। सातिगुणे सा। १० १२७। ति । न १. न्यायकोष पृ० ४९९ । २. न्यायबिन्दु पृ० १७। ३. प्रत्यक्षस्य विशेषमाह-मेयमाप्रमासु सा" प्रकरणपं० पृ०५२। ४. "मेयेग्विन्द्रिययोगोत्था द्रध्वजातिगुणेषु सा । सविकल्पाऽवि. करूपा च प्रत्यक्षा बुद्धिरिष्यते ॥" प्रकरणपं० पृ० १२७। ५. "यावती काविद्रहणमरणरूपा प्रतीतिस्तत्र साक्षादात्मा प्रतिभाति । न साल्मन्यनवभासमाने विषया भासन्ते ।.....नन्वेवं वर्हि सर्व प्रत्यक्षं प्रसकंयदि मात्रभिप्रायम्, इटमेव । प्रमेयाभिप्रायमिति चेछ । सर्वत्र प्रमेयस्खापरोक्षस्वनियमाभावात् ।......तेन प्रमेयापेक्षया प्रमाणान्तरध्यपदेशः ।" प्रकरणपं० पृ० ५६ । ६. "सर्वाब प्रतीतयः खयं प्रत्यक्षाः प्रकाशस्ते । तासान युक्तमेव स्वास्मनि प्रत्यक्षस्वं मामत्वं । मेचे मावरि च व्यतिरिका प्रतीतिः साक्षात्कारवती । मिती तुमव्यतिरिका ।" प्रकरणपं० पृ०५६। ७. "मप्रकाशखमावानि मेवानि माता च प्रकाशमपेक्षम्साम् । प्रकाशस्तु प्रकाशात्मकस्वाबाम्बमपेक्षते ।......"प्रकाशाय स्वप्रकाकामानस्य सत्तेव नाम्युपेयते।" प्रकरणपं० पू०५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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