Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 428
________________ पृ० ७४. पं० ५] टिप्पणानि । २३५ अवस्तु होनेसे-काल्पनिक होनेसे उसे यहाँ आरोपित कहा गया है - "अन्यत् सामान्य लक्षणम् । सोऽनुमानस्य विषयः।" न्यायबि० परि० १. ।। पृ०७१. प० १. 'ननु तुलना-“तत्र यदसाधारणविषयं दर्शनं तदेव प्रमाणम् । तस्मिन् तथा रटे स येन येन असाधारणं ततो मेदं अभिलपम्ती अतन्यावृत्तिविषया स्मृतिसत्पना प्रत्यक्षवलेन न प्रमाणम्, यथापरिहष्टाकारग्रहणात्।":"अर्थक्रिमांसाधनस्य मालोचना मानेन दर्शनादरष्टस्य पुनस्तत्साधनस्य विकल्पेनापतिपत्तेः विधिविकल्पो में प्रमाणम् ।" हेतु० टी० पृ० २५-२७।। पृ० ७२. पं० १३. 'निरस्तत्वान्' देखो, पृ० १४।। पृ० ७२. पं० २१. 'नमूक्तम्' देखो, पृ० ६३. पं० ११ । पृ० ७३. पं० ६. 'किंच, भावांश" के स्थानमें 'किञ्च अभावांश' ऐसा पाठ होना चाहिए। पृ०७३. पं० १०. 'न हि' ऐसा ही वाक्य हेतु बिन्दु में भी है-पृ० १८९ । सन्मति० टी० पृ० २८५ पं० २० । पृ०७३. पं० १६. 'अभिधास्यते' देखो पृ०७१. पं० १३ । पृ०७३. पं० २१. 'अण्णोण्णा व्याख्या- "अन्योन्यानुगतयोः परस्परानुप्रविषयोः 'वं वातद्वा ' इति"... विभजनं पृथक्करणं, तद् अयुक्तम् -अघटमानकम्, प्रमाणा. भावेन कर्तुमशक्यत्वात् । यथा दुग्धपानीययोः परस्परप्रदेशानुप्रवियो।" सन्मति० टी० पृ०४५२ । पृ०७४. पं० १. 'प्रतिगतम्' तुलना-"प्रतिगतमाश्रितम् अक्षम् । अस्यादयः कान्ता 'पयें रितीययेति समास । तापमालमतिसमासेषु परवलिङ्गप्रतिपादमिधेयवल्लिो सति सर्वलित प्रत्यक्षशब्दः सिखः । अक्षाश्रितस्वं च व्युत्पत्तिनिमितं शव्यस्य, नतु प्रवृत्तिनिमित्तम् । अनेन तु अक्षाभितत्वेनैकार्यसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते । तदेष शब्दस्य प्रवृत्तिनिमितम् । ततश्च यत्किश्चिदर्थस्य साक्षात्कारिक्षानं तत् प्रत्यक्षमुच्यते यदि तुमक्षाभितत्वमेव प्रवृत्तिनिमितं स्यादिन्द्रियज्ञानमेव प्रत्यक्षमुच्येत । न मानसादि। पथा गच्छतीति गोरिति गमनक्रियायां व्युत्पादितोऽपि गोशब्दो गमनक्रियोपळसितमेकार्यसमवेतं गोत्वं प्रवृत्तिनिमित्तीकरोति । तथा च गच्छति अगच्छति च मवि गोशम्बर सिखो भवति ।" न्यायबि० टी० पृ० १०-११ । सन्मति० टी० पृ० ६२. पं. ३ । प्रमाणमी० भाषा० पृ० २३. पं०.२४ । .. पृ० ७४. पं० ५. 'वैशयम्' वैशथके लक्षणकी चर्चामें शान्त्या चार्य ने निर्विकल्पकत्व तथा स्पष्टत्वरूप वैशयका लक्षण खण्डित किया है । और अन्तमें 'इदन्त्वेनाक्भासन'रूप साक्षात्कारिखको वैशयका सम्यग् लक्षण सिद्ध किया है। मतलब यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है अर्थात् साक्षादनुभवरूप होता है ऐसा शान्त्या चार्यको इष्ट है। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्यों के प्रत्यक्ष प्रमाणके प्राचीन लक्षणों में प्रत्यक्षकी उत्पादक सामग्रीका या अप्रामाण्यव्यावर्तक विशेषणोंका तो निर्देश हुआ है किन्तु प्रत्यक्षका अन्यव्यावृत्त खरूप प्रकाशित करनेवाले विशद, स्पष्ट, या साक्षात्कारात्मक जैसे शब्दोंका प्रयोग देखा नहीं जाता । दार्शनिक क्षेत्रमें बौद्धों के पदार्पणके साथ ही प्रत्यक्षका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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