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पृ० ६२. ५०६] टिप्पणानि ।
२२३ पनीत उपमान और वैधोपनीत उपमान प्रमाणके तीन तीन भेद किये गये हैं और वे उक्त पूर्वपक्षीके द्वारा निषिद्ध भेद ही हैं ऐसा तुलना करनेसे पता लगता है-“से किं तं साहम्मोषजीए' साहम्मोतिविहे पण्णते, तं जहा किंचिसाहम्मो० पायसाह० सव्यसाह । से किंतं किंचिला..."जहा मंदरो वहा सरिसवो जहा समुहो तहा गोप्पयं. जहा
आइचो तहा बजोतो.""जहाचंदोतहा कुमुदो से कितं पायसाह... जहा गोवहा गवयो" से किं तं सबसाह०१ सम्बसाहन्मे थोषम्मे नत्थि तहावि तेणेव तस्त मोवम्मं कीरर जहा मरिहंतेहिं भरितसरिसं कयं"।" अनुयो० पृ० २१७ ।
(उ) जैनों के प्राचीन सूत्र अनु योग द्वार के उपमान प्रमाणको आगे जाकर जैन दार्श निकों ने प्रत्यभिज्ञानके अन्तर्गत कर दिया है । और उसका लक्षण संकलनारूप सम्यम्मान बताया है। इस प्रत्यभिज्ञानमें अतीत और वर्तमान पर्यायकी संकलनाका ज्ञान होता है। ऐसी संकलनाका विषय सादृश्य हो तब दूसरे लोगोंने उसे उपमान कहा जब कि उसीको बैनाचायों ने सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहा है- तत्त्वार्थश्लो० पृ० १९० । परीक्षा० ३.५ । प्रमाणन० ३.५।
२-उपमानका प्रामाण्य उपमानके प्रामाण्यके विषयमें चार मत निम्नलिखित प्रकारसे हैं(1) उपमानका सर्वथा अप्रामाण्य (आ) उपमानका अन्यमें अन्तर्भाव (३) उपमानका पृथक् प्रामाण्य (६) उपमानके प्रामाण्य-अप्रामाण्यका अनेकान्त
(अ) उपमानका सर्वथा अप्रामाण्य बौद्ध संमत है । तखोपप्लव सिंह कार जयराशि चा िक भी इसका प्रामाण्य नहीं मानते । उन्हीं का अनुकरण करनेवाले श्रीहर्ष वेदान्ती और शान्त्या चार्य जैन मी उपमानप्रामाण्यको नहीं मानते।
शान्त रक्षित और प्रज्ञा कर गुप्त इन दोनों बौद्ध आचार्योंने समान रूपसे यही दलील की है कि उपमान प्रमाण नहीं है क्योंकि उसका कोई प्रमेय है ही नहीं। दूसरी बात यह है कि यदि सादृश्यप्रतिपादक उपमान प्रमाण माना जाता है तो वैसादृश्यग्राहक एक अन्य प्रमाणकी कल्पना करनी चाहिए - तत्त्वसं० का० १५५९ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५५६ ।
शान्त र क्षित ने उपमान और स्मृतिमें अभेद सिद्ध करके स्मृतिकी तरह उसका अप्रामाण्य सापित किया है । उनका कहना है कि गो और गवय दोनोंमें कुछ ऐसे अवयव हैं जो तुल्यप्रत्ययकी उत्पतिमें हेतु होते हैं । इन अवयवोंके अतिरिक्त सादृश्य या सामान्यं ऐसी पृषाभूत कोई वस्तु नहीं जो तुल्यप्रत्ययकी उत्पत्तिमें हेतु होती हों। अत एव जब हम गवयको देखते हैं तब गोगत उन अवयवोंकी स्मृति भूयोदर्शनके कारण होती है। यही उपमान है। अत एव स्मृतिरूप होनेसे वह प्रमाण नहीं - तत्त्वसं० का० १५४७-४९।
चार्वाक प्रत्यक्षप्रमाण मानता है यही सामान्यरूपसे सब की धारणा है किन्तु तत्वोपप्लव
.. "प्रमेयवस्वभाग नामिप्रेतास मानता।" तस्वसं का० १५४३ । प्रमाणा. मलं. पृ०५७४।
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