Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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टिप्पणानि । [१० ४६. पं० ३०पृ० १६. पं० ३०. 'अर्थ' 'अथ' शब्दके बाद अवतरण चिह रखना चाहिए । कोष्ट. कान्तर्गत पाठ निकाल देना चाहिए।
पृ० १६. पं० ३०. 'देहात्मिका' तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ. ६५ । व्यो० पृ० ३९३।
पृ० १७. पं० १७. 'अथ यदि प्रमाणवा० अलं० पृ० ७० । पृ०४७. पं०२६. 'यतो मृतस्य प्रमाणवा० अलं० १० ८९ । प०४७. पं० २९, 'अथ वैगण्य प्रमाणवा० अलं० १०९०। पृ०४८. पं० ९. 'तथा हि प्रमाणवा० अलं० पृ० ९३ । पृ० १८. पं० १३. 'कि' प्रमाणवा० अलं० पृ० ९३ । पृ० १८. पं० २७. 'चक्षुरादीनि प्रमाणवा० अलं० पृ० ७०। पृ० ४९. पं० ५. 'प्राणापान' प्रमाणवा० अलं० पृ० ८४ । पृ० ४९. पं० १६. 'अथ स्थिरो वायु: वही ।
पृ० १९. पं० २२. 'नापि देहाश्रितम्' -प्रमाणवार्तिकमें आश्रयाश्रयिभावका निरास करके देहाश्रितचैतन्यका निरास किया गया है -प्रमाणवा० १.६५-७४ । उसीके आधार पर प्रज्ञा करने जो विवरण किया है वही यहाँ उद्धृत है- अलं० पृ०९६ । अष्टस० पृ० १८६ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १५१। पृ० ५०. पं० २६. 'नापि कायात्मकम्' प्रमाणवा० अरू० पृ० १११ । पृ० ५०. पं० २८. 'अन्तःस्पष्टव्य' प्रमाणवा० अलं० पृ० १०६। पृ० ५१. पं० १. 'अर्थ' वही पृ० ८६ । पृ० ५१. पं० ८. 'अर्थ' वही पृ० ७२ ।
पृ० ५१. पं० ११. 'चैतन्येन' शरीरादिसे अतिरिक्त आत्मतत्त्वकी सिद्धिके लिये देखोन्यायसू० ३.१ । न्यायमं० वि० पृ० ४३७ । व्यो० ३९१ । श्लोकवा० आत्मवाद । प्रमाणवा० १.३७ । तत्त्वसं० का० १८५७-१९६४ । ब्रह्मसू० शां० ३.३.५३ । धर्मसंग्रहणी गा० ३६-1 विशेषा० गणधरवाद । अष्टस० पृ० ६३ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २६ । प्रमेयक० पृ० ११० । न्यायकु० पृ० ३४१ । स्याद्वादर० पृ० १०८०।
पृ०५१. पं० १७. 'अन्त्यसामग्य' इस कारिकाकी टीकामें मीमांसक और धर्म कीर्ति संमत सर्वज्ञखण्डन को विस्तारसे पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करके सर्वज्ञकी सिद्धि की गई है। पूर्वपक्ष को उपस्थित करनेमें गद्यकी अपेक्षा पय का ही विशेष अवलम्बन लिया है। क्योंकि मूल पूर्वपक्ष मीमांसा लोक वार्तिक और प्रमाण वार्तिक में कारिकाबद्ध ही है। और शान्त रक्षित ने भी सर्वज्ञसिद्धिके प्रसंगमें कुमारिल संमत पूर्वपक्ष कारिकाओंमें ही उपस्थित किया है । शान्त्याचार्यने प्रायः सभी पूर्वपक्षकी कारिकाएँ उक्त तीनों प्रन्थोंसे ही उद्धृत करके पूर्वपक्षकी योजना की है। कुछ कारिकाएँ ऐसी हैं जो उक्त प्रन्योंमें नहीं हैं। उन्हें शायद शान्त्याचार्यने खयं निबद्ध किया हो या अन्य किसी ग्रन्थसे उद्धृत किया हो।
सर्वज्ञवादके तुलनात्मक ऐतिहासिक विवेचन के वास्ते जिज्ञासुओंको प्रमाणमीमांसाका भाषाटिप्पण (पृ०.२७) देखना चाहिए ।
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