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टिप्पणानि।
[पृ०४५, पं० २०खा य में श्री हर्ष ने परमबमका बाधक प्रमाण कोई हो नहीं सकता इस बातको समर्थित कारनेके लिये प्रमाणों की असिद्धि बतलाई है किन्तु उस असिद्धिके पीछे परम ब्रह्मकी सिद्धि
उनको अभिप्रेत है। जब कि जयराशि को प्रमाणकी असिद्धिके पीछे तत्वोपप्लव अभिप्रेत है। .. जयराशि को बृहस्पति संमत भूत मी अनिष्ट है । वह तो कहता है कि बृहस्पति ने चार
भूतोंके अस्तिलकी बात सूत्रबद्ध की है वह उनका सिद्धान्त नहीं है, किन्तु उन्होंने लोकसिद्ध सूतोंका अनुवाद मात्र किया हैं।
पृ० १५. पं० २०. 'प्रतिवादमिप्यते' देखो, पृ० ६१.
पृ०१५. पं० २६. "चैतन्यम् जैनागमों में चार्वाक मतका निषेध किया गया है। नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि आगमिक टीकापन्नोंमें तथा सन्म तितर्क टीका जैसे दार्शनिक प्रन्थों में मी चैतन्यसाधक प्रमाण उपलब्ध होते हैं । किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने प्रमाण बार्ति कालंकार (पृ०१७-११२) में से ही शब्दशः अवतरण करके जीवतत्त्वकी सिद्धि की है । प्रज्ञा करके कई श्लोकों को 'तदाह' या 'तदुक्तं' ऐसे निर्देशके बिना ही तथा उनकी युक्तियोंको शब्दशः उत्तार कर शान्या चाये में प्रज्ञा करके पाण्डिसके प्रति अपना मूक आदर ही व्यक्त किया है।
यहाँ एक बासका स्पष्टीकरण करना बसन्त आवश्यक है। बौदोंने चैतन्यकी सिद्धि की है सही। परंतु बौद्धोंके मतसे चैतन्यका अर्थ जीवद्रव्य नहीं है । अपि तु चित्तसंतति है। जैन मतसे जानधाराका-ज्ञानपर्यायोंका जो खरूप है वही बौद्धसमत चित्तसंतति है । जैसे जैनोंके मतसे झानपर्याय प्रत्येकक्षणमें बदलते रहते हैं और पूर्वज्ञानका नाश होते ही उत्तरज्ञान पर्याय उत्पन्न होता है । वैसेही बौद्धोंके मतसे पूर्वचित्तका नाश और उत्तर चित्तका उत्पाद होता है। इस प्रकार चितकी धारा-चित्तकी संतति अनादि कालसे प्रवृत्त है और भागे मी चलती रहती है।
बौद्ध पर्यायवादी है, द्रव्यवादी नहीं । अत एव उनके मतसे चित्त अर्थात् एकमात्र ज्ञान ही है किन्तु ज्ञानको धारण करनेवाले किसी अन्य द्रव्य का अस्तित्व नहीं । जब कि जैन द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुवादी होनेसे ज्ञानको जीवद्रव्यका गुण कहते हैं । और इसी गुणकी विविध अवस्थाओंको पर्याय । अत एव चैतन्वकी सिद्धिके प्रसङ्गमें जैन-बौछ एक होकर चार्वाक को परास्त करें यह खाभाविक है । किन्तु इतना करनेके बाद मी जैन और बौद्धों का आपसी शालार्य बाकी ही रह जाता है । प्रस्तुत प्रसंगमें शान्त्या चार्य ने चैतन्यके पार्थक्यकी सिद्धि करके ही शालार्य पूर्ण किया है किन्तु अन्यत्र बनेकान्तवाद की सिद्धिके प्रसंगमें (पृ० ११७) बौद्ध संमत द्रव्याभाव का निरास किया है।
बौद्धोंके मतसे पित्तक्षण एकान्त क्षणिक हैं । क्षणिक चितोंका उत्तरोत्तर उत्पाद निरन्तर होता रहता है । निरन्तर अपरापर सघश वित्त क्षणोंकी उत्पत्तिके कारण सादृश्यमें एकत्वका भ्रम होता है और द्रष्टा इन अनेक चिसक्षणोंकी संतति-धाराको एक वस्तु समज लेता है।
.."सखम्, अनाथ चैतन्य संवानापेक्षया न पुनरेकाम्पविद्रब्यापेक्षवा, क्षणिकपिचानामन्यवासुपपवेरिरूपरः । सोचनात्मशः । वदनम्ववस्वस्थ मनुमानवाधितत्वात् । तथा हि । एकसम्वालगाबित पर्यावाखणतोस्विताः । प्रत्यभिज्ञापमानत्वात् मृत्पर्याया यशाः ॥"तस्वार्थलो.पृ०३३।
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