Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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४० ६०. ५० ५] टिप्पणानि।
२१३ सामान्य परोक्ष कहा जाता है क्योंकि वह परोक्ष प्रमाण-अनुमानका विषय है । अत एव दो ही प्रमेय होनेके कारण प्रमाण भी दो ही हैं।
परोक्षार्थप्रतिपत्तिका साधन मात्र अनुमान ही है अन्य शाब्दादि नहीं । जो भी परोक्ष प्रमेय हो वह सब कभी विशेषरूपसे-असाधारणरूपसे प्रतीतीका विषय नहीं हो सकता। गमकानुयायी सामान्यरूपकी ही प्रतीति लिङ्गसे होती है अत एव सर्वतोव्यावृत्त खलक्षणरूप विशेषकी प्रतीति अनुमानसे कभी नहीं हो सकती । उसे तो प्रत्यक्ष ही विषय करता है।
६-जैन दार्शनिकोंने भी वस्तुतः प्रमेय एक ही माना है । और वह है द्रव्यपर्यायात्मक * वस्तु । उस एक ही वस्तुकी विज्ञप्ति अनेक प्रकारकी हो सकती है । एक ही वृक्ष प्रमातासे दूरीके कारण या अन्धकारके कारण अस्पष्टप्रतिभासका विषय बनता है और वही सन्निकट हो तब स्पष्ट प्रतिभासका विषय होता है । किसी वस्तुके सन्निहित होने पर या आलोकके होने पर उसका स्पष्ट प्रतिभास होता ही है यह भी नियम नहीं है, क्योंकि अंजनशलाकाका नेत्रसे भतिसम्भिधान होने पर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता । और आलोकके होने पर भी घूकादिको दिनमें स्पष्ट प्रतिभास होता नहीं । अत एव मानना यह चाहिए कि वस्तुतः प्रमाताकी नाना प्रकारकी शक्ति या योग्यताके कारण ही नाना प्रकारका ज्ञान होता है। अर्थात् प्रमेयमें मेद न होते हुए भी उसकी नाना प्रकारकी विज्ञप्तिमें प्रमाता या उसकी शक्तियाँ ही नियामक तत्त्व हैं। विज्ञप्तिके भेदसे प्रमेयमें वस्तुतः भेद नहीं माना जा सकता किन्तु प्रमाता या उसकी शक्तिओंमें ही भेद मानना उचित है । इन नाना प्रकारकी विज्ञप्तिओंके आधार पर प्रमेयमें भी भेदकी कल्पना उपचारसे की जा सकती है । अर्थात् प्रतीति यदि अस्पष्ट हो तो प्रमेय को भी अस्पष्ट और यदि प्रतीति स्पष्ट हो तब प्रमेयको भी स्पष्ट कहा जा सकता है । ऐसी स्थितिमें विषयी अर्थात् शानके धर्मका विषय अर्थात् प्रमेयमें उपचार करके ही उक्त व्यवहारोंकी संगति कर लेना चाहिए।
धर्म की र्ति ने प्रमेय एक ही मानकर ख और पर रूपसे उसीकी प्रतीतिके आधार पर उसका द्वैविध्य सिद्ध किया है वैसे ही जैन दार्शनिकोने भी द्रव्यपर्यायात्मक एक वस्तुको ही प्रमेय मानकर सामग्रीके मेदसे उसीकी विशद और अविशद रूपसे होनेवाली प्रतीतिके आधार पर उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा है-देखो का० १३ । __इस प्रकार जैन और बौद्ध दोनोंमें वस्तुके खरूपके विषयमें मतभेद होते हुए मी प्रमेय एक ही है और यही अपेक्षाकृत नाना है इस विषयमें मतैक्य है।
१. प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः । तस्मात् प्रमेयद्विस्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ॥" प्रमागवा० २.६३। २. "परोक्षार्थप्रतिपत्तेरनुमानाश्रयत्वात्" हेतु० पृ० ३। “सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् ।"-प्रमाणवा०२.६२। ३. "गमकानुगसामान्यरूपेणैव तदा गतिः । तस्मात् सवा परोक्षार्थों विशेषेण न गम्यते ॥" प्रमाणवा० २.६१। ४. "अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् ।" न्याया० का० २९ । तद्रव्यपर्यायारमार्थों बहिरन्तश्च तस्वतः ॥" लघी०७। ५. "मळविद्यमणिव्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धारमविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ॥" लघी० ५७ । अस०पू० २९-३० १२४,१८४,२२६ । तत्वार्थश्लो० पृ० २२९ । प्रमेयक० २.३ । स्याद्वादर०२.२।
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