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१० २८. पं० २९]
टिप्पणानि । धर्म की ति ने मी शक्ति पृथक् न होनेसे पदार्थको ही नानैककार्यकारि माना है । अर्थात् पदार्थ ही शक्त है-शक्ति है तव्यतिरिक्त कोई सामर्थ्य उसमें नहीं-प्रमाणवा० २.५३५॥ धर्मकीर्तिके मतसें सत्त्व ही अर्थक्रियाकारित्व है, वही शक्ति है और वही पदार्थ है । शान्तरक्षित ने इसी बातका स्पष्टरूपसे समर्थन किया है
"तत्र शक्तातिरेकेण न शक्तिर्नाम काचन । याऽर्थापत्त्यावगम्येत शकश्चाध्यक्ष एव हि॥ अर्थक्रियासमर्थ हि स्वरूपं शक्तिलक्षणम् ।
एषमात्मा च भावोऽयं प्रत्यक्षाव्यवसीयते॥" तत्त्वसं०१६०७,१६१०। ३-शक्तिग्राहक प्रमाण । मी मांस कके मतसे यह एकान्त है कि शक्ति अतीन्द्रिय होनेसे प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकती। वह अर्यापत्तिसे गम्य है-श्लोक० शून्य० २५४ ।
नै या यि क के मतसे शक्ति जातिरूप या गुणरूप होनेसे प्रत्यक्ष प्रमाणका मी विषय हैन्यायमं० पृ०६५।
बौद्ध के मतसे शक्ति पदार्थका स्वभाव होनेसे अप्रत्यक्ष नहीं । पदार्थका जहाँ प्रत्यक्ष है वहाँ वह प्रत्यक्ष ही है । यही मत सांख्य और वेदान्त को भी मान्य हो सकता हैतस्वसं० १६०७॥
जैनों का इस विषयमें एकान्त नहीं । शक्तिका द्रव्यरूपसे प्रत्यक्ष और पर्यायरूपसे अप्रलक्ष माना गया है । तत्त्वार्थश्लो० पृ०६०।
पृ० २७. पं० १५. 'शक्ति' विविधरीतिसे शक्तिका विचार जाननेके लिये देखो-तावा० पृ० ३९०-४०० श्लोकवा० शून्य० २४८-२५७, अर्था०१-६४७-४८ सम्बन्धात २५-२९, ३७, ३८७ ८९-९७, शब्दनि० ४३-४५, वाक्या० ६० से । तत्त्वसं०.पृ० ४५७। प्रकरणपं० पृ० ८१ । शास्त्रदी० पृ०८० । व्यो० १९३ । न्यायमं० पृ० ३४-३९१ ६५ तात्पर्य० पृ० ३७, १०३ । अष्टस० पृ० १८३ । सन्मति० टी० पृ०९, २५४ । न्यायकु० १५८-१६४ । प्रमेयक० पृ० १९५-२०२ । स्याद्वादर० पृ० २८६-३०६ ।
पृ० २८. पं० १२. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो, का० ३४ । क्षणिकत्वनिराकरणके लिये देखो, का० ३५ ६२० । का ५६ ६२१ ।।
पृ० २८. पं० २१. 'वेदेश्वरादयः वेद, ईश्वर आदि नित्यप्रमाणोंको शान्त्या चार्य ने बाधाका संभव होनेसे अप्रमाण कहा है किन्तु धर्म की र्ति ने वेदादिका प्रामाण्य विलक्षण दंगसे खण्डित किया है । उनका कहना है कि ज्ञेय ही जब अनिल्य है तब तजन्य ज्ञान मी अनित्य ही होगा। अत एव नित्य वेदादि प्रमाण नहीं हो सकते
"नित्यं प्रमाणं नैवास्ति प्रामाण्यात् वस्तुसंगतः । यानित्यतया तस्याभोव्यात् ॥" प्रमाणवा० १.१०।
पृ० २८. पं० २३. 'वेदाच' तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० ४०।
पृ० २८. पं. २७ 'तत्वम् - "जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्" वत्स्वार्थ० १.४।
पृ० २८. पं० २९. 'दर्शयिष्यते' देखो, का० ११,१२ ।
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