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पृ० २७. पं० १५] टिप्पणानि ।
१८१ अग्निआदिको दाहकादि शक्तिका आश्रय मानने पर कोई आपत्ति आती नहीं अत एव उसका आश्रय अग्नि आदिको मानना चाहिए।
शक्ति कर्मकी है और वह रहती आत्मामें है यह कैसे संभव है ? । इस प्रश्नके उत्तरमें कुमारिल ने कहा है कि क्रिया और आत्माका अत्यन्तमेद नहीं अत एव कर्म की शक्ति आत्मामें रह सकती है । शक्ति खयं कार्यक्षम हो इतना ही पर्याप्त नहीं है किन्तु खाश्रय मी कार्यक्षम होना चाहिए । अत एव नष्ट कर्म अशक्त होनेसे आत्मा को ही शक्त-शक्तियुक्त मानना चाहिए।
अपूर्व अमूर्त है । अमूर्तमें आश्रयाश्रयिभावका कोई विरोध नहीं । आत्मा और सुखादि अमूर्त होने पर भी उनमें जैसे आश्रयाश्रयिभाव है वैसे ही अमूर्त शक्ति और आत्मा का मी आश्रयाश्रयिभाव घट सकता है - तत्र० पृ० ३९८ । __ मी मांसकों के इस अपूर्वकी तुलना जैन सम्मत भावकर्मसे करना चाहिए । भावकर्म भी अतीन्द्रिय और अमूर्त है । द्रव्यकर्मजन्य होने पर भी वह आत्मा का धर्म है। जैसे मी मांस कों ने कर्म -क्रिया को आत्मासे अभिन्न माना है वैसे जैनोंने भी द्रव्यकर्मको आत्मासे कयचिदभिम माना है । मी मां स कों ने अपूर्वको जैसे कर्म जन्य माना है वैसेही भावकर्म को-जैनों ने द्रव्यकर्मजन्य माना है । मीमांसकों ने जैसे अपूर्वको फलजननमें समर्थ माना है वैसे ही जैनों ने भावकर्म को विशिष्ट फलजनक माना है। __प्रभा करानु गा मी शा लिक नाथ का कहना है कि शक्तिका आश्रय यदि नित्य है तो वह नित्य होगी और यदि अनित्य है तो अनित्य होगी। अनित्य शक्तिकी उत्पत्ति आश्रयके कारणों से ही होती है।
जिस वस्तुसे कमी कार्योत्पत्ति न हो वहाँ शक्ति का नाश माना जाता है और वस्तुका मी माश माना जाता है। किन्तु कुछ कालके लिये कार्योत्पत्ति न हो तो शक्तिका अभिभव मानना चाहिए, नाश नहीं । जैसे मणिमन्त्रादि से दाहक शक्तिका कुछ कालके लिये अभिभव होता है माश नहीं। शादी पि का कार के मतसे मन्त्रादिसे शक्तिका अभिभव नहीं किन्तु नाश होता है । मी मांस कों के मतसे वस्तुके साथ शक्तिका मेदाभेद है-तत्त्वसं० का० १६१४ ।
नै या यि क संमत संस्कार और उक्त शक्तिका मेद यह है कि नित्याश्रय संस्कार अनिल है तब नित्याश्रया शक्ति नित्य है । अनित्याश्रय संस्कार खाश्रयातिरिक्त कारण जन्य है तब शक्ति खाश्रयकारणातिरिक्त कारण जन्य नहीं - ऐसा शा लि क नाथ का मन्तव्य है । किन्तु ऐसा मानने पर शक्ति और तदाश्रयकी मेदरेखा नहिंवत् हो जाती है । एखादिसे शक्तिके मेदको स्पष्ट करनेवाला निम्न लिखित श्लोक प्रसिद्ध है
"सुखमाबादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम्।।
शक्तिः क्रियानुमेया स्याद् यूनः कान्तासमागमे ॥ १. "क्रियात्मनोरत्यन्तभेदाभावात्" वही। २. जैन मतानुसार भावकर्म द्रव्यकर्मका जनक भी है। १. निस्य आस्माकी स्वशक्ति नित्य होगी किन्तु कर्मजन्य अपूर्व शक्ति यद्यपि आत्माश्रित है फिर भी अनित्य ही है यह अपवाद है। १. प्रकरणपं० पृ० ८२। ५. प्रकरणपं० पृ० ८२ । "न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन शक्यते"-श्लोक० सूत्र०२.४७। ६. अष्टस०पू०७४, सम्मति टी०पू०४७८, स्याद्वादर० पृ० १७८ इत्यादिमें उद्धृत ।
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