Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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१० १५. पं० २२]
डिपणानि । ग्रहण होता है और जो अधिक का ग्रहण होता है वह नहीं हो सकता । तथा श्रोत्रसे दूर देशस्थित शब्द का ग्रहण होता है वह मी कैसे होगा । अत एव चक्षु और श्रोत्रजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष होने पर भी सन्निकर्षजन्य नहीं होनेसे लक्षण में अव्याप्ति दोष है-प्रमाण- . समु० १,२०,४६।
दिमाग की इस आपति का उत्तर उड्यो त करने समी इन्द्रियोंकी प्राप्यकारिता सिद्ध करके दिया । उसका कहना है कि जो जो करण होगा वह वास्यादिकी तरह प्राप्यकादि ही होगा-न्यायवा० ए०३३,३६।
किन्तु कुमारिल ने संप्रयोग-सनिकर्ष का अर्थ ही बदल दिया । इन्द्रियोंका व्यापार ही संप्रयोग है'-सन्निकर्ष है। यदि ऐसा माना जाय तब बौद्धोंने जो सन्निकर्ष के विषयमें दोष दिया ( प्रमाणसमु० १.४१ ) उससे मी मांस कका प्रत्यक्ष लक्षण कैसे दूषित हो सकता है ! श्लोकवा० ४.४० । कुमारिल के पहले भवदासा दिने संप्रयोग का अर्थ सनिकर्ष किया था। किन्तु कुमारिल ने व्यापार अर्थ किया और बौद्धोक्त दोषोंसे बच गए।
कुमारिल का कहना है कि विना सम्बन्धके किसी एकसे दूसरेकी प्रतीति होगी नहीं यह कोई राजाज्ञा नहीं । सम्बन्ध विना मी प्रत्यक्ष प्रमाण है-श्लोकवा० अर्था० ८० ।
कुमारिल ने इन्द्रिय व्यापार के अलावा संप्रयोग का एक और मी अर्थ किया है। अर्थकी ऋजुदेशस्थिति और इन्द्रियकी योग्यता मी संप्रयोगशब्दवाच्य है-श्लोक० १.४२-४३। - जैनों को यही पक्ष मान्य है। किन्तु जैनों ने योग्यता का अर्य किया है प्रतिबन्धापाय अर्याद शानावरण के हटनेसे आत्मामें जो शक्ति आविर्भूत होती है. वही योग्यता है. क्यों कि उसके होनेपर ही ज्ञान होता है और उसके नहीं होनेपर ज्ञान नहीं होतान्यायकु० पृ० ३१. पं० ६,१७।
कुमारिल ने उपर्युक्त नाना प्रकारके अर्थ करके दोषवारण किया और अखिरमें फिर बदल कर कह दिया कि सन्निकर्षका अर्थ संयोग मानें तब मी दोष नहीं क्यों कि चक्षुरादि समी इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हो सकती हैं। इस प्रकार उन्होंने बौद्धों के साथ बैठने की अपेक्षा सांख्य और नै या यि का दि के साथ रहना ही अच्छा समझा । उनको सांख्या दि की अपेक्षा बौद्ध पक्ष कुछ दुर्बल माछम हुआ-श्लोक ४.४३ ।
पृ० १५. पं० २२. 'वोढा समिकर्ष' सन्निकर्ष छ: प्रकारका प्राचीन वर्णन न्याय वा ति कमें मिलता है-पृ. ३१ । प्रमाणस मुख्यके टीकाकारने पांच प्रकारके सनिकर्षका उल्लेख किया है। उन्होंने विशेषणविशेष्यभावका उल्लेख नहीं किया-पृ० ३९ । प्रज्ञा करने छः प्रकारके सनिकर्षका उल्लेख किया हैं-प्रमाणवा अमु पृ०॥
खण्डनके लिए देखो प्रमाणवा २.३१५ अ० म० पृ०८ । न्यायमं० पृ० ४६ । तस्वार्थला० पृ० १६८।न्यायकुछ पृ० ३१ । माया पृ० ५९।
शालिक नाप ने 'बोढा सचिकर्ष का खण्डन करके सिर्फ १ संयोग, २ संयुक्तसमवाय और ३ समवाय ये तीन सचिकर्ष माने हैं-प्रकरणपं० पृ०१४-०६। .. "पोंग हालचाणा समापोऽन्यते"-मोकवा० ४.३८ ।
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