________________
पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
-१५७
अन्य जैनाचार्य संमत खतः परतः प्रामाण्यके अनेकान्तकी शान्त्या चार्य ने चर्चा नहीं की है। इसका मुख्य कारण तो यह जान पडता है कि 'प्रामाण्यका निश्चय परतः हो ही नहीं सकता' इस मी मां स क संमत एकान्त का खण्डन करना ही उनको यहाँ मुख्यतया इष्ट है । और प्रसंगतः प्रमाणका अबाधितत्व स्थापित करके अविसंवादका खण्डन करना मी इष्ट है ।
इस चर्चा की सम्मति तर्कटी का गत चर्चाके साथ तुलना करना जरूरी है । देखो सन्मति० टी० पृ० ५ ।
पृ० २२. पं० ९. 'किश्व' इस कण्डिकाकी और अनन्तरवर्ती कण्डिकाकी तुलना आगे आनेवाली बाधककी चर्चागत कण्डिका ( १२३ ) से करना चाहिए ।
-
पृ० २३. पं० ३. 'द्विष्ठ' यह कारिका प्रज्ञा करगुप्त की है । इसका उत्तरार्ध है"द्वयवरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ।" - प्रमाणवा० अ० पृ० २ ।
पृ० २३. पं० १३. 'ननु किं बाध्यम्' यहाँ से (१११ ) जो बाध्यबाधकभावका निराकरण किया गया है वह प्रज्ञा करगुप्तकृत प्रमाणवार्तिकालंकारसे ( पृ० २५७ ) प्रायः शब्दशः लिया गया है । अन्य दार्शनिकोंने मी पूर्वपक्षरूपसे जो बाध्यबाधकभावका निराकरण किया है वह भी प्रायः उक्त ग्रन्थके आधार पर ही किया है। देखो व्यो० पृ० ५२५ । न्यायमं० पृ० १६१ | सन्मति० टी० पृ० १२,३६७ ।
वो पल व कारने मी अपने ढंगसे मिथ्यात्वका विचार किया है- देखो तत्त्वो० पृ० १३. पं० २१ । और बाध्यबाधकभावका निराकरण भी किया है- पृ० १४. पं० २४ ।
पृ० २३. पं० १४. 'मिथ्यात्व' अतत्त्वज्ञान मिध्यात्व, मिथ्याप्रत्यय, भ्रम, विभ्रम भ्रान्ति, व्यभिचारिज्ञान, विपर्यय, मिथ्याज्ञान इत्यादि शब्दोंसे दार्शनिकोंने असम्यग्ज्ञान - अविद्याका बोध कराया है। किन्तु उसके निरूपणमें नाना प्रकारके मत-मतान्तर देखे जाते हैं । अतः यहाँ पर मिथ्याज्ञान' के विषयमें निम्न लिखित बातों पर विचार किया जाता ।
१ - अस्तित्वके विषयमें मतभेद ।
२ - मुख्य भ्रम और व्यावहारिक भ्रम ।
३ - व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रियामें मतभेद ।
४ - दोषमीमांसा ।
५ - प्रत्यक्षेतर भ्रम ।
६ - प्रामाण्यचिन्ता ।
१ - अस्तित्वके विषयमें मतभेद ।
वो पलवा दी जय राशि भट्टका एक मात्र मुख्य कार्य यह है कि दूसरे दार्शनिकोंने
Jain Education International
१. विद्यानन्द ने विपर्ययके दो अर्थ किये हैं। सामान्य और विशेष । सामान्य विपर्ययमें संशय, मध्यवसाय और विपर्ययविपरीत निर्णय का समावेश है । और विशेषविपर्ययमें अमका । प्रस्तुत दूसरा अर्थ ही विवक्षित है- स्वार्थसो० पृ० २५५ ।
I
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org