Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
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मतिज्ञानके अवग्रहादि धारणापर्यंत भेदोंमें जो विपर्यय है वह सहज है क्योंकि उसमें उपदेशकी अपेक्षा नही है । धारणाका एक विशेषमेद स्मृति है उसमें भी सहज विपर्यय है । स्मृति परोक्षज्ञान है । अननुभूत वस्तुका अनुभूतरूपसे स्मरण ही स्मृतिविपर्यय है ।
प्रत्यभिज्ञानका अम युगपज्जातशिशुमें स्पष्ट है । या सदृश 'घट' शब्दको सुनकर 'यह वही 'घट' शब्द है जो मैंने पहले सुना था' ऐसा ज्ञान करना प्रत्यभिज्ञानभ्रम है । सादृश्यमें एकताका ज्ञान होनेसे यह भ्रम कहा जाता है। वस्तुतः सभी शब्द वक्ता के प्रयत्नसे उत्पन्न होते हैं किन्तु मीमांसक भिन्न शब्दोंको भी सादृश्यके कारण एक समझ कर नित्य मानता है । अत एव उपर्युक्त प्रत्यभिज्ञान जो मीमांसक को होता है वह प्रत्यभिज्ञाभास है । क्योंकि विषय है तिर्यम्सामान्य किन्तु उसमें वह ऊर्ध्वता सामान्यका बोध करता है ।
इसी प्रकार लिङ्गलिङ्गिसंबंधज्ञानरूप तर्क भी विसंवाद होने पर विपरीत कहा जाता है । स्वार्थानुमानस्थलमें हेत्वाभासजन्य लिङ्गिज्ञान अनुमानका विपर्यय है ।
स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क और खार्यानुमान ये परोक्ष मतिविशेष हैं । उक्त रीति से समी मत्यज्ञान सहज विपर्यय है ।
श्रुताज्ञान जो चक्षुरादिमतिपूर्वक है वह सहज विपर्यय है । क्योंकि वह परोपदेशनिरपेक्ष होता है । किन्तु श्रोत्रमतिपूर्वक श्रुताज्ञान आहार्य विपर्यय है, क्योंकि वह उपदेशसापेक्ष है ।
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श्रुताज्ञानरूप आहार्य विपर्ययके वि या नन्द ने दो भेद किये हैं । एक सद्विषयक और दूसरा असद्विषयक | प्रथमके जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं उनमें से कुछ ये हैं
(१) खरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे सर्व वस्तुओंके सद्रूप होने पर मी शून्य वा द
मानना ।
(२) अ - प्राह्मग्राहकभाव होने पर भी विज्ञान वा द ।
ब - कार्यकारणभाव होने पर भी ब्रह्मा द्वै त ।
क - वाक्यवाचकभाव होने पर मी शब्दा द्वै त ।
(३) अ - सर्व वस्तुओंमें सादृश्यके होने पर मी तथागत संमत वैसादृश्यवाद । ब - सर्वं वस्तुओंमें एकत्व होने पर भी सर्वथा सादृश्यका स्वीकार ।
(४) द्रव्य और पर्यायमें मेदाभेद होने पर भी नै या यिक संमत अत्यन्त भेद । (५) जीवका अस्तित्व होने पर भी चार्वा क संमत नास्तित्व ।
(६) अजीवका अस्तित्त्र होने पर भी ब्रह्मवाद ।
इसी प्रकार असद्विषयक आहार्य विपर्यय के विषयमें विद्यानन्द ने ये उदाहरण दिये हैं(१) सभी वस्तुएँ पर द्रव्यादिकी अपेक्षासे असत् होने पर भी सदेकान्तवादका स्वीकार । (२) अ - प्रतीत्यारूढ प्रायग्राहकभाव नहीं होने पर मी योगा चार संमत प्रतीत्यारूढ
ग्राह्यग्राहकभाव ।
इसी प्रकार उपर्युक्त 'सत्' पक्षके उदाहरणोंसे उलटा असत् पक्षमें घटा लेना चाहिए । अवधिज्ञानका विपर्यय विभंग नामसे प्रसिद्ध है । उसका सहज विपर्यय ही होता है । क्योंकि वह परोपदेशसापेक्ष नहीं है ।
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