Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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०२३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
१६९
अथास्ति काचित् परतः प्रामाण्यस्य निषेधिका । शून्यवादस्य या युक्तिः सैव वाच्या किमेतया ॥" - न्यायमं० पृ० १६९ ।
८ - नैयायिकादिसंमत विपरीतख्याति ।
न्याय-वैशेषिक, जैन, कु मा रिल आदिको विपरीतख्याति इष्ट है। पूर्वोक्त ख्यातियोंसे विपरीतख्यातिका बैलक्षण्य स्पष्ट है । प्रभाकर की तरह दो ज्ञान नहीं किन्तु एक ही प्रत्यय मानकर सभी विपरीतख्यातिवादी श्रमकी उपपत्ति करते हैं। विपरीतख्यातिवाद के अनुसार बाह्य वस्तुएँ सर्वथा ज्ञानरूप या शून्यरूप या सर्वत्र सत् रूप नहीं है, अतएव इस बादमें आत्म ख्याति या असत् ख्याति या सत् ख्याति को अवकाश नहीं है । विपरीतख्यातिवाद में बाह्य वस्तुओंका निर्वचन शक्य है अत एव इस वादमें अनिर्वचनीयख्याति भी संभव नहीं । बाह्य वस्तुओंका लौकिकालौकिक रूपसे विभाग भी विपरीतख्यातिवादको मान्य नहीं । अत एव इस वादमें अलौकिकख्यातिको भी अवकाश नहीं । विपर्ययका मतलब यह है कि अन्य आलम्बनमें अन्य प्रत्ययका 1 होना । शुक्तिकामें शुक्तिकाप्रत्यय ही अविपरीत प्रत्यय है और रजतप्रत्यय विपरीत, जो कि इन्द्रियादिके गुण दोषोंका फल है । दोषके कारण शुक्तिका निजरूपसे प्रत्यक्ष न होकर रजतरूपसे दिखती है । रजतसदृश शुक्तिकाके दर्शनजन्य रजत - स्मृतिके कारण शुक्तिकामें ही रजतका दर्शन होता है । अर्थात् हृदयमें परिस्फुट रजतका बाह्य शुक्तिमें दर्शन करना ही रजतविपर्यय है । बाह्यार्थ रजत नहीं पर शुक्तिका है अतएव यह प्रत्यय विपर्यय है' । शुक्तिका में रजत दर्शन रजतस्मृतिजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान है, न कि स्मृति । यही स्मृतिप्रमोष और विपरीतख्यातिका भेद है ।
४ - दोषमीमांसा |
किसी दार्शनिकने भ्रमज्ञानको निर्दोष नहीं माना है । अत एव समीने अपनी अपनी दृष्टि से दोषोंकी मीमांसा की है ।
उद्योतकर ने स्पष्ट कहा है कि विपर्ययज्ञानमें ज्ञानको व्यभिचारि मानना चाहिए अर्थको नहीं । निरुक्त कार के वचनको उद्धृत करके वाचस्पति मिश्रने कहा है कि 'स्थाणुको अन्ध पुरुष नहीं देखता यह कोई स्थाणुका अपराध नहीं है, यह अपराध तो पुरुषका है।' वैसे ही इन्द्रियसे प्रथम मरीचिकाका निर्विकल्पकज्ञान होता है पर जब सविकल्पकज्ञानका अवसर आता है तब मरीचिकासे उपघात होनेके कारण इन्द्रिय अपना कार्य ठीक ठीक कर नहीं पाती अतएव विपर्यय हो जाता है । अर्थात् मरीचिविषयक जलप्रत्ययरूप सविकल्पकज्ञान हो जाता है । सारांश यह है कि दोष अर्थका नहीं, द्रष्टाका है या उसके साधनका है ।
प्रशस्तपाद को भी यही विचार मान्य है - देखो पृ० ५३८ । व्यो० ५३९ ।
बौद्धों के मत से ऐन्द्रियक प्रत्यक्षमें इन्द्रियोंकी ही मुख्यता है । अत एव बौद्धों ने माना है कि
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१. “सपदार्थदर्शनोभूतस्मृत्युपस्थापितस्य रजतस्याश्र प्रतिभासनमिति । ... ... हृदये परिस्फुरतोsधेस्य बहिरवभासमम् । न चैतावतेयमात्मख्यातिर सख्यातिर्वेति वक्तव्यम् । विज्ञानाद्विच्छेदप्रतीतेः अत्यन्तादर्थप्रतिभासाभावाचेति । अत एव पिहितखाकारा परिगृहीतपराकारा शुक्तिकैवात्र प्रतिभातीति" न्यायमं० पृ० १७० । २ देखो न्यायथा० पृ० ३७ । तात्पर्य पृ० १३२ ।
न्या० २२
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