Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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टिप्पणानि ।
[पृ० २७. पं० ३-. हैं । इस दृष्टिसे भी शास्त्ररचना और उसका अभ्यास, अविधाका विलास होते हुए भी, उपयोगी है।
पृ. २७. पं० ३. 'विषयदोषः' तुलना-"तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभायनाहित. विभ्रमं" इत्यादि न्याय बिन्दु सूत्र की टीका देखनी चाहिए जिसमें नाना प्रकारके दोषोंका वर्णन किया गया है । तथा देखो, सन्मति० टी० पृ० ३, पं० २२।।
पृ० २७. पं० १५. 'शक्तिः शक्ति वस्तुका सामर्थ्य है । बीजका सामर्थ्य अंकुरजननमें है, वहिका सामर्थ्य दाहमें है, विषका सामर्थ्य मारणमें है, शब्दका सामर्थ्य अर्थप्रकाशनमें है, परशुका सामर्थ्य छेदनमें है - इस प्रकार सामर्थ्यके विषयमें तो किसी दार्शनिकका मतभेद नहीं है, किन्तु वह सामर्थ्य क्या है, उसका स्वरूप क्या है, सामर्थ्यका समर्थके साथ क्या सम्बन्ध है, सामर्थ्यका ग्रहण किस प्रमाणसे होता है, इत्यादि बातोंमें नाना मतमेद देखे जाते हैं । अत एव यहाँ शक्तिके विषयमें निम्न लिखित मुद्दों पर विचार किया जाता है
१-शक्तिकी कल्पनाका बीज । २-शक्तिका खरूप ।
३-शक्तिप्राहक प्रमाण । । ५- शक्तिकी कल्पनाका बीज ।
संसारमें नाना प्रकारके कार्योंकी उत्पत्ति देखी जाती है । उत्पत्तिमें भी व्यवस्था देखी जाती है। जैसा कारण हो वैसा ही कार्य होता है । जिस किसी कार्य की जिस किसी कारणसे उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु अमुक कार्यकी उत्पत्ति अमुक कारणसे ही होती है । यदि पट बनाना हो सब तन्तुका ही ग्रहण आवश्यक होता है, और घट बनाना हो तो मृत्तिकाका । इस व्यवस्थाके मूलमें ही शक्तिकी कल्पनाका बीज है।
२-शक्तिका स्वरूप।
कार्यकारणभावका विचार दार्शनिकोंने दो प्रकारसे किया है । अद्वैत वा दि ओं के मतसे कार्यकारणभाव व्यावहारिक सत्य है, संवृतिसत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं । बा ह्या र्थ वा दि ओं के मतसे ही कार्यकारणभाव पारमार्थिक सत्य है । अत एव कार्यकारणभावकी व्यवस्थामेंसे ही फलित होनेवाली शक्तिके खरूपके विषयमें भी दार्शनिकोंके दो मन्तव्य हों यह खाभाविक ही है । अद्वैतवादिओंके मतसे शक्तिस्थानापन्न अविद्या, माया, वासना' या मिथ्यात्व है । उसका खरूप सामान्यतः अनिर्वचनीय है । वह न सत् है न असत्, न उभयरूप है न अनुमयरूप । बाह्यार्थवादिओंके मतसे शक्ति अनिर्वचनीय नहीं किन्तु पारमार्थिक वस्तु है। ___ माध्यमिक बौद्धने सभी व्यवहारोंको अविचारित रमणीय माना है । भावोंको उसने सर्व
१. "प्रज्ञा विवेकं लभते भिरागमदर्शनैः । कियद्वा शक्यमुझेतुं स्वतर्कमनुधावता ॥ १९२ ॥ तत्तदुप्रेक्षमाणानां पुराणैरागमैर्विना । अनुपासितवृद्धानां विद्या नातिप्रसीदति ॥ १९३ ॥" वाक्य०३। २. श्लोकबा०शून्यवाद २५३,२५४ । न्यायकु० पृ०१५८. पं०१३ । पृ० १६०.पं०१७। ३. "वासनैव युष्माभिः शक्तिशब्देन गीयते" श्लोक० शून्य०२५६।
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