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टिप्पणानि। [१० २३. पं० १४जन्य अर्थात् प्रथमक्षणभावि इन्द्रियज्ञान ही है, अन्य नहीं । बादके समी ज्ञान कल्पनाजनित हैं अर्थजन्य नहीं । खलक्षणका साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान निर्विकल्पक है, अव्यपदेश्य है, कल्पनापोढ है । जितने मी सविकल्पक ज्ञान हैं, जिन्हें हम इन्द्रियजन्य मानते हैं वे बौद्ध मतानुसार साक्षात् इन्द्रियजन्य नहीं किन्तु परंपरासे इन्द्रियजन्य है। अत एव सविकल्पक. ज्ञान वस्तुतः इन्द्रियजन्य नहीं किन्तु मनोजन्य हैं।
कोई मी इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रान्त नहीं होता । भान्त ज्ञान मनोजन्य होते हैं-"मनोविषयो हि विभ्रमविषयः"-प्रमाणसमु० १.१९, वृत्ति समी इन्द्रियजन्य ज्ञान अभ्रान्त ही होते हैं । अत एव दि मा गने प्रत्यक्षलक्षणमें अभ्रान्त विशेषण देनेकी आवश्यकता नहीं समझी।
धोत्तरने मी धर्म की र्तिकृत प्रत्यक्षलक्षणगत अभ्रान्तपदकी दो व्याख्याएँ की है। एक व्याख्याके अनुसार तो उन्होंने कहा कि इन्द्रियप्रत्यक्षशान मी प्रान्त होते हैं। और दूसरी व्याख्याके अनुसार कहा कि अभ्रान्त विशेषणका व्यावर्य प्रान्त ऐसा अनुमान शान है। क्योंकि अनुमानका यथापि प्राय अनर्य-सामान्य है तथापि यह अनर्य-सामान्यमें अर्याध्यवसायी होनेसे विपर्यस्त है । जब कि प्रत्यक्ष अपने प्राय विषयमें विपर्यस्त नहीं होता । मत एव वह सर्वदा अमान्त ही होता है।
व्यवहारमें जिस शानको हम पृथग्जन प्रम कहते हैं उसका खरूप योगा चार बौद्धों ने अपनी दृष्टिसे इस प्रकार प्रतिपादित किया है कि अन्य दार्शनिक जैसा समझते हैं, "प्रमखलमें विषय कुछ और है और प्रतिभासित कुछ और होता है वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। विद्यमें तत्व तो एक ही है और वह है विज्ञान । विज्ञान मिन कोई बास बस्तु है ही नहीं । यह सर्वप्रकाश विज्ञान मी प्रामग्राहकमावसे रहित है। ऐसी स्थितिमें अन्यमें अन्यका प्रतिभास संभव ही नहीं । योगा चार की दृष्टिसे वस्तुतः आन्तर तत्व विज्ञानका साकार ही वापरूपसे प्रतीत होता है । यदि प्रम है तो उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि अन्तस्तत्वमें बाघलपका भारोप है । उसका प्राधाहकरूपसे द्वैधीभाव करना ही अम है
"अविभागोपि घुयात्मा विपर्यासितदर्शनः । प्रायसाहकसंवितिमेदवानिव लक्ष्यते ॥" प्रमाणवा० २.३५४।
अर्थक अभावमें मी वासनाके कारण प्रतिभासमेद हो सकता है तक अतिरिक्त अर्यको माननेसे क्या लाभ ?
"कस्यचित् किधिदेवान्तर्वासनायाः प्रबोधकं । ततो पियां विनियमो न बाधाव्यपेक्षया ।" प्रमाणवा० २.३३६ ।
१. "अविकल्पमपि शानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत्" तत्त्वसं० का०१३०६ । "वर्शनं पार्थसाक्षाकरणाल्यं प्रत्यक्षव्यापारः । उत्प्रेक्षणं विकल्पव्यापार!"-न्यायवि०टी०पू०२७। २. दुबिस्ट लोजिक माग १. पृ०१५६ । तत्वसं. पं० पू० ३९४।३. "वथानान्तहणेनापि भनुमाने निवर्तिते कल्पनापोडग्रहणं विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थम् ।
प्रानुमानं खप्रतिमासेऽनडाबबसायेन प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यक्षं तु माझे कमें न विपर्यसम् ।" ज्याववि. बुद्धिस्ट कोजिको संशोधितपाठ जो दिया गया है वही ऊपर उड़त किया है-भाग २०१७ । भा० ... १५५ । ४. "नायोऽनुमाव्यतेनाखि तख नानुभवोऽपरः । तखापि सुस्यवोचत्वार खयं सैव प्रकाशते" । प्रमाणवा० २.३२७॥
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