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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि । योगा चार की उक्त दृष्टिसे केवल शुक्तिकामें रजतप्रत्यय ही प्रान्त नहीं किंतु सभी सविषयक प्रत्यय प्रान्त हैं। योगा चार मानता है कि समी प्रत्ययों में ज्ञानकी अपनी ही ख्याति होती है अत एव आत्मख्याति मानना ही उचित है । ज्ञानोंमें प्रान्ताप्रान्तका विवेक लोकव्यवहारसे है। जब वस्तुतः बाध्यबाधकभाव ही नहीं घटता तब परमार्थतः ज्ञानोंमें प्रान्ताप्रान्तका विवेक करना संभव नहीं-प्रमाणवा० अ० पृ० २५७ । वही मु० पृ० २३ ।
सारांश यह है कि जितना मी वासनाका कार्य है चाहे वह संवादि हो या अविसंवादि वह सब मृषा-मिथ्या है । वासनाप्रतिबद्धत्व ही मिथ्यात्व है । इस न्यायसे पृथग्जनोंके सब व्यवहार वासनामूलक होनेसे परमार्थतः मिथ्या हैं । व्यवहारमें अविसंवाद होनेसे जहाँ पृथग्जन ज्ञानको अप्रान्त समझते हैं वहाँ वह अविसंवाद अविपरीतवासनाप्रबोधमूलक है । और जहाँ विसंवाद होनेसे पृथग्जन भ्रमका व्यवहार करते हैं वहाँ वह विसंवाद विपरीतवासनाप्रबोधमूलक है। अर्थात् दोनों स्थलमें वासनाप्रतिबद्धत्व समानरूपसे है । अत एव ये दोनों व्यवहार परमार्थतः मिथ्या है-"कथं तर्हि मृषात्वपरिक्षानम् ? । वासनाप्रतिषञ्चत्वज्ञानादेव । द्विविधं हि मृषार्थत्वम्-असदर्थत्वं विसंवादित्वं च । विसंवादित्वं विपरीतवासनाप्रबोधतः। अविपर्यासवासनाप्रबोधतच संवादित्वम् इति । ननु संवादश्चेदस्ति कथम. सदर्षत्वम्। भविसंवादाकारस्यापि वासनाप्रतिबद्धत्वात् । नाविसंवादिप्रतिभासेऽपि मर्थान्वयव्यतिरेकानुविधानमस्ति । एतदेवासदर्थत्वम्"-प्रमाणवा० अ० मु० पृ० ५८।
(५) ब्रह्माद्वैतवादिसंमत अनिर्वचनीयख्याति ।
प्रमाद्वैत वा दिके मतसे समी प्रपञ्च अविधाका विलास है । भा मती टीका में वा च स्पति. मिश्र ने भ्रमस्थलमें अनिर्वाच्यख्याति मानी है । उनका कहना है कि मरुमरीचिकामें जलज्ञानका विषय जो जल है वह सत् नहीं क्योंकि यदि सत् होता तो वह जलज्ञान मिथ्या नहीं कहलाता । वह जल असत् मी नहीं क्योंकि असत् से खपुष्पकी तरह तद्विषयक ज्ञान या प्रवृत्ति ही संभव नहीं । वह जल सदसद्रूप भी माना नहीं जा सकता क्योंकि एक तो इस पक्षमें पूर्वोक्त दोनों दोषोंकी आपत्ति होगी दूसरे विरोध के कारण सदसपका संभव भी नहीं । अत एव ज्ञानप्रतिभासित उस जलका सदसदादि किसी रूपसे निर्वचन' अशक्य होनेके कारण उसे अनिर्वचनीय ही मानना चाहिए । और उसकी ख्यातिको अनिर्वचनीय ख्याति मानना चाहिए।
भद्वैतवादिओंके मतसे एक ब्रह्म ही सद्रपसे निर्वचनीय है और बाकी सब अविचारूप होनेसे-मायिक होनेसे सदादि किसीरूपसे निर्वचनीय नहीं । अत एव अमस्थलमें आविधक रजत का प्रतिभास अनिर्वचनीय ख्यातिरूप मानना उचित है।
विज्ञानवादिओंकी आत्मख्याति और अद्वैतवादिओंकी अनिर्वचनीय ख्यातिमें नाममात्रका भेद है । दोनों बाह्य वस्तुको न सत् कहना चाहते हैं न असत् । दोनों ही आन्तरिक तस्वका
1. "सर्वे प्रत्ययाः मनालम्बनाः प्रत्ययस्वात् । इदमेव मनालम्बनत्वं यदारमाकारवेदनत्वम्"प्रमाणवा अ०म०पू०२२। २. "परमार्थतः सकलं स्वरूपविषयमेव, व्यवहारतोऽर्थविषयता" यह सिद्धान्त है मत एवं व्यवहारमें अर्थका बाध हो तो प्रान्त, भन्यथा भनान्त-वही पृ०९८।३.ब्रह्मसूत्र १.१.१. । प्रमेयक० पृ०५१ । १. चित्सुखी पृ०७९। ५. "विदारमा तु श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणगोचरखन्मूलतदविल्वन्यायनिर्णीवशुद्धबुद्धमुकखभावः सत्वेनैव निर्वाभ्योऽवाधिवः ।"भामती १.१.१.
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