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टिप्पणानि ।
[पृ० २३. पं० १४उस भ्रम ज्ञानकी उपपत्ति करते हैं । दर्शनमेदसे इन उपपत्तिओंके आठ प्रकार पाये जाते हैं। जैसे
(१) चार्वाक संमत अख्यातिवाद । (२) माध्यमिक संमत असख्यातिवाद । (३) सांख्य संमत प्रसिद्धार्थख्यातिवाद । (१) योगाचार संमत आत्मख्यातिवाद । (५) प्रमाद्वैत वा दि संमत अनिर्वचनीयख्यातिवाद । (६) मी मां स क सं मत अलौकिकार्यख्यातिवाद । (७) प्रा भाकरसं मत स्मृतिप्रमोषापरपर्याय विवेकाल्यातिवाद ।
(८) नै या यि क-जै ना दि संमत विपरीतख्यातिवाद । - समी दार्शनिकोंके सामने मुख्य प्रश्न यही है कि शुक्तिकामें रजतप्रत्ययकी उत्पत्तिका निमित्त क्या है ! । अर्थात् शुक्तिकाके होने पर मी उसमें रजतप्रत्यय क्यों होता है ! रजतका तो नेत्रके साथ संसर्ग है ही नहीं तब रजतप्रत्यय हुआ कैसे ! । शुक्तिका उपस्थित होनेपर मी उसका ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? । दोष किसका ? । आत्मा-प्रमाताका, शुक्तिका-विषयका, इन्द्रिय-अधिपतिका या आश्रयका । इन दोषोंकी मीमांसाके समय ही समी दार्शनिक दो विभागोंमें विभक्त हो जाते हैं। बाह्यार्थवादिओंके लिये समस्याका हल एक है । और अद्वैतवादिओंके लिये समस्याका हल दूसरा ही है । बाह्यार्थवादिओंके सामने प्रश्न यह है कि यदि ज्ञान अर्थानुसारि हो तो फिर शुक्तिकाका अनुसरण न करके वह रजतावसायि कैसे हुआ। जब कि अद्वैतवादिओंके सामने प्रश्न यह है कि शुक्तिका और रजत इन दोनोंका अस्तित्व न होते हुए मी वहाँ रजत क्यों दिखाई देता है और शुक्तिमें शुक्तिका ज्ञान अभ्रान्त और उसीमें रजतका ज्ञान प्रान्त क्यों ? । जब कि अर्थाभाव दोनों स्थलमें समान है फिर भ्रान्ताभान्त विवेक कैसे है। इन प्रश्नोंक उत्तरमें से उपर्युक्त मतोंका आविर्भाव हुआ है।
(१). चार्वाक संमत अख्यातिवाद ।
चार्वाक अख्यातिवादी है। प्रभाकरसंमत विवेकाख्याति मी संक्षेपमें अख्याति कहलाती है। किन्तु चार्वाक संमत अख्यातिका मतलब कुछ और है और प्रभा क र संमत अख्यातिका मतलब कुछ और।
चार्वाक का कहना है कि अन्य वस्तु अन्याकारसे प्रतीत नहीं हो सकती । वह दलील करता है कि यदि रजतज्ञानका विषय रजत माना जाय तब वह प्रान्त कैसे सिद्ध होगा। और शुक्तिकाको तो रजतज्ञानका विषय मान ही नहीं सकते क्योंकि रजत ज्ञानमें वह प्रतिमासित ही नहीं होती । अत एव चावो क का सिद्धान्त यह है कि शुक्तिकामें रजत प्रत्ययको निरालम्बन ही मानना उचित है । क्यों कि इस प्रत्ययमें किसी भी वस्तुकी ख्याति है ही नहीं, इस लिये इसे अख्याति कहना चाहिए। .. प्रमेयक पृ०४८ । स्थाबादर० पृ० १२४ ।
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