Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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टिप्पणानि । [१० १७.५० ११दृष्टिसे ही अद्वैतवा दिओं के मतमें प्रमाण-प्रमेयादि व्यवहारोंकी घटना सत्य समझी जाती है । पारमार्थिक दृष्टि से ब्रम हो या ज्ञान वह निर्विकल्प है अत एव वहन प्रमाण है न अप्रमाण, न वह प्रमाण है न प्रमेय, न वह प्रमिति है न प्रमाता । वह ऐसी समी कल्पनासे शून्य है । वह खयंप्रकाशक है । अनुभवगम्य है- अवाच्य है।।
परमार्थ मेदशून्य होते हुए भी भ्रान्तिके कारण, अविषाके कारण मेदयुक्त प्रतीत होता है । भेदप्रतीति वासनामूलक है । जब तक वासना बलवती रहती है भेदव्यवहारकी सस्यता मानकर प्रमाण-अप्रमाण की व्यवस्था होती है । वासनाके अन्तके साथ भेदव्यवहारकृत व्यवस्थाका भी अन्त होता है । तब परम तत्त्वका खप्रकाश न प्रमाण है न अप्रमाण । वह सकल विकल्पातीत और खसंवेष है।
नै या यि क, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसा दर्शनोंमें इस प्रकार दो दृष्टिओंका अवलम्बन ले करके विचार नहीं किया गया है। ये दर्शन प्रामाण्यकी चिन्ता लौकिक दर्शनके आधार पर ही करते हैं । उनके मतानुसार शाखदृष्टिसे वासितान्तःकरण पुरुषके चाक्षुष ज्ञानमें और रथ्यापुरुषके चाक्षुष ज्ञानमें प्रामाण्याप्रामाण्यकृत कोई भेद नहीं। दोनों के ज्ञान समानरूपसे प्रमाण होंगे । जैन तार्किकोंके मतसे मी यही बात है । किन्तु जैनसैद्धान्तिकों के मतमें एकका यथार्थज्ञान होते हुए मी अप्रमाण हो सकता है और दूसरेका अयथार्थ होता हुआ मी प्रमाण हो सकता है । सैद्धान्तिकों के मतमें आत्माका ज्ञान कैसा भी हो-अविसंवादि भी क्यों न हो, पर आत्मा यदि मोक्षाभिमुख नहीं है तो उसकी उस अयोग्यताके कारण उसका ज्ञान अप्रमाण ही कहा जायगा । जब कि मोक्षामिमुख आत्मा का संशय मी ज्ञान है, प्रमाण है।
एक और दृष्टिसे भी प्रामाण्यका विचार दार्शनिकोंने किया है । ज्ञानका ज्ञान-अर्थात् ज्ञानको विषयकरनेवाला ज्ञान-चाहे वह खसंवेदन हो या अनुव्यवसायरूप प्रत्यक्ष या अर्यापत्तिरूप परोक्ष-प्रमाण ही है । जैन, बौद्ध और प्राभा करने ज्ञानको खाकाश माना है। नैयायिकों ने ज्ञान को विषयकरनेवाला अनुव्यवसायरूप मानस प्रत्यक्ष माना है और भामीमांसकों ने अर्यापत्तिरूप परोक्ष ज्ञानको ज्ञानविषयक माना है। जैनादि संमत ये खसंवेदनादि कमी अप्रमाण नहीं । या यों कहना चाहिए कि ज्ञानमें जो प्रामाण्यका विचार है वह खापेक्षासे नहीं किन्तु खव्यतिरिक्त अर्यकी अपेक्षासे ही होता है।
पृ० १७. पं० ११. 'अवभासो' तुलना-"व्यवसायात्मकं शानमारमार्थप्राहकं मतम् । ग्रहणं निर्णयस्तेन मुल्यं प्रामाण्यमभुते॥" लघी० ६० ।
पृ० १७. पं० ११. 'व्यवसायो' संशयादि समी ज्ञान तो हैं किन्तु अमुक ज्ञानको ही प्रमाण कहा जाता है अन्यको नही । तब सहज ही प्रश्न होता है कि ज्ञानके प्रामाण्यका नियामक तत्त्व क्या हो सकता है जिसके होनेसे किसी जानव्यक्तिको प्रमाण कहा जाय।
..भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणामासनिडवः । बहिअमेयापेक्षायां प्रमाणं वधिमंच ते ॥" मातमी. का० ८३ । स्याद्वादर० १.२० । "वरूपे सर्वमान्वं पररूपे विपर्वयः" प्रमाणवा० स० मु०पू०४१।
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