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टिप्पणानि । [पृ० १७. पं० ११माना ही है। उनके मतमें मी वस्तु सामान्यतया अधिगत और विशेषतया अनधिगत हो सकती है । अत एव ऐकान्तिक रूपसे अनधिगत ही प्रमाणका विषय होना चाहिए' यह मी मां स कों का आग्रह ठीक नहीं -प्रमेयक० पृ० ६०। ___ इसी प्रकारके अपूर्वार्थक बोधको अकलंक ने प्रमितिविशेष, अनिश्चितनिश्चय और व्यवसायातिशय ( अष्टश० का० १०१) कहा है । तथा विद्यानन्द ने उपयोगविशेष भी कहा है-अष्टस० १०४।
श्वेताम्बर जै ना चा यों ने तो प्रमाण लक्षणमें उक्त विशेषणको स्थान ही नहीं दिया । प्रत्युत उस विशेषणका खण्डन ही किया है - प्रमाणमी० १.४।।
गृहीतार्थप्रापणका मतलब है अविसंवाद । धर्म की र्ति ने प्रमाण वा र्तिक में अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहा है - "प्रमाणमविसंवादि शानम्" प्रमाणवा० १.३ । और अविसंवाद का अर्थ किया है "अर्थक्रियास्थितिः अविसंवादनम्" १.३ । इसीका अर्थ धर्मोत्तरने न्या य बिन्दु टीका में स्पष्ट किया है - "लोके च पूर्वमुपदर्शितमर्थ प्रापयन् संवादक उच्यते । तवज्ज्ञानमपि स्वयं प्रदर्शितमर्थ प्रापयत् संवादकमुच्यते । प्रदर्शिते चार्थे प्रवर्तकरवमेव प्रापकत्वम् । तथा हि-न झानं जनयदर्थ प्रापयति । अपि त्वर्थे पुरुष प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम् । प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव । न हि पुरुषं हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम्" न्यायबिन्दुटीका पृ० ५।
यदि वस्तु एकान्त क्षणिक हो तब अविसंवाद संभव ही नहीं ऐसा कह कर शान्या चार्य ने धर्म की ति संमत इस लक्षणका खण्डन किया है । किन्तु उनको मी अविसंवाद एकान्ततः प्रमाण लक्षणरूपसे अनिष्ट है सो बात नहीं । क्योंकि उन्होंने आगम प्रामाण्यके समर्थनमें "छेदो मानसमन्वयः" (का० ५५) कह करके अविसंवादको भी खीकृत किया ही है । तथा दूसरोंके आगमको प्रमाणसंवाधर्थका अप्रतिपादक होने से (पृ० ११२. पं० २८) अप्रमाण कहा है । इससे भी यही फलित होता है कि उनको अविसंवाद भी प्रमाणलक्षणरूपसे इष्ट है।
वस्तुतः सम्यग्ज्ञान, व्यवसाय, अविसंवादि, अबाधित, निर्णय, तत्त्वज्ञान, साधकतम, समारोपव्यवच्छेदक, अव्यभिचारि, अभ्रान्त - इन सभी शब्दोंसे दार्शनिकोंने प्रामाण्यका ही प्रतिपादन किया है । इन शब्दोंके अभिधेयार्थमें भेद भले ही मालूम हो पर तात्पर्यार्थमें कोई भेद नहीं । सभी दार्शनिक अपनी अपनी प्रक्रियाका भेद दिखानेके लिए नये नये शब्दोंकी योजना करते हैं । परिणामतः तात्पर्यार्थमें अभेद होने पर भी अभिधेयार्थमें भेद होनेके कारण परस्पर खण्डन-मण्डनका अवकाश रहता है ।
अत एव हम देखते हैं कि विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वा ति क में (१.१०) नै या यिकादि सभी दार्शनिक संमत प्रमाणलक्षणके खण्डन प्रसंगमें बौद्ध संमत अविसंवादका भी खण्डन किया है। किन्तु उन्होंने खयं और अकलंक ने भी आप्तमी मां साकी टीका' अनेकत्र अविसंवादको प्रमाण लक्षण माना है । अत एव विद्यानन्द को आखिरकार समन्वय भी करना पडा कि अविसंवाद कहो या खार्थव्यवसाय तात्पर्यमें कोई भेद नहीं।
..अष्टस०पृ०७४,२७८ । २. अष्टस० पृ० २७९ । प्रमाणपरीक्षा पृ०५३ ।
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