Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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पुं० १७. पं० ६] टिप्पणानि ।
१४७ नन्दी सूत्र में मिथ्यादृष्टि जीवके समी ज्ञानोंको अज्ञान ही कहा है । और सम्यग्दृष्टिके समी ज्ञानोंको ज्ञान ही कहा है। मिथ्यादृष्टि घटको घट जाने फिर भी वह अज्ञान है।
और सम्यग्दृष्टिके संशयादिक भी ज्ञान ही कहे जाते हैं । आचार्य उ माखा तिने समर्थन किया है कि उन्मत्त पुरुषकी तरह मिथ्यादृष्टि जीवको सदसद्का विवेक नहीं होता । जैसे उन्मादी मनुष्य माताको पनी और पत्नीको माता कहता है तब तो उसका अविवेक स्पष्ट है किन्तु जब वह माता को माता या पनी को पनी कहता है तब भी वहाँ यादृच्छिक उपलब्धि होनेसे विवेकका अभाव ही मानना चाहिए क्योंकि उसको सत्यासत्यके अन्तरका पता नहीं । उसकी चेतना शक्ति मदिराके कारण उपहत है । ठीक वैसे ही जिसकी चेतना शक्ति मिथ्यादर्शनसे उपहत होती है उसका ज्ञान-चाहे यथार्थ हो या अयथार्थ-सत्यासत्यका विवेक नहीं होनेसे, अज्ञान ही कहा जाता है । जिन भद्रगणि ने इसके विषयमें और स्पष्टता की है कि मिथ्यादृष्टिका ज्ञान अज्ञान इस लिए कहा जाता है कि वह मोक्षका हेतु न बनकर संसारका ही हेतु होता है । और खास बात तो यह है कि ज्ञानका फल जो चारित्र है वह मिध्यादृष्टिमें सम्भव नहीं, अत एव निष्फल होनेसे मी वह अज्ञान ही है। तथा वस्तु अनन्तपर्यायात्मक है, फिर भी मिथ्यादृष्टि निर्णयकालमें मी उसे वैसी नहीं जानता, क्योंकि उसका अनेकान्तमें विश्वास ही नहीं । वस्तुतः उसको सर्वत्र विपर्यास ही है क्योंकि उसे अपने मतका मिथ्याभिनिवेश होता है। ___ इस तरह आध्यात्मिक दृष्टिसे जो सम्यग्दृष्टि मोक्षाभिमुख जीव है उसके समी ज्ञान प्रमाण ही हैं, और मिथ्यादृष्टि संसाराभिमुख जीवके समी ज्ञान अप्रमाण ही है-इसी बातको ध्यानमें रखकर उमा खा तिने सम्यग्दृष्टिके पांच ज्ञानोंको ही प्रमाण कहा है, और मिथ्यादृष्टिके तीन अज्ञानोंको प्रमाण नहीं कहा।।
आगमिकशैलीसे जहाँ प्रमाण-अप्रमाणका विवेचन होता है वहाँ इसी आध्यात्मिक दृष्टिका आश्रय लेकर सैद्धान्तिकोंने ज्ञानके प्रामाण्यका निर्णय किया है। किन्तु तार्किकदृष्टिसे प्रामाण्यके चिन्तन प्रसंगमें व्यावहारिक या बाह्य दृष्टिका अवलम्बन जैन दार्शनिकोंने किया है । अत एव प्रस्तुतमें भी शान्त्या चार्य ने व्यावहारिक दृष्टिसे ही व्यवसायको प्रमाण कहा है। यह व्यवसाय सम्यग्दृष्टिका हो या मिथ्याष्टिका प्रमाण ही है।
जितने अद्वैतवा दी हैं उन समीको प्रामाण्यकी चर्चा दो दृष्टिओंसे ही करनी पड़ती है। ज्ञानमें प्रामाण्य या अप्रामाण्यका प्रतिपादन, या प्रमाण, प्रमेय, अमिति और प्रमातारूप क्रिया. कारकोंकी कल्पना बिना मेद माने हो नहीं सकती । समी अद्वैत वा दि ओं के मतमें एक, अखण्ड, निरंश तत्व ही सत्य माना गया है । किसीने उसे ब्रह्म कहा तो किसीने शून्य किसीने ज्ञान कहा तो किसीने शब्द । वही पारमार्थिक तत्त्व है । अत एव पारमार्थिक दृष्टिसे समी भेदमूलकव्यवहार मिथ्या हैं, सांवृत हैं। किन्तु व्यावहारिक दृष्टिसे या सांवृतिक दृष्टिसे ये समी भेदमूलक व्यवहार सत्य हैं । व्यवहारका मूलाधार ही भेद है । अत एव व्यावहारिक
१. नन्दीसूत्र सू० २५। तत्त्वार्थभा० १.३२.-३३। २. विशेषा० गा० ३१४। ३. "सदसदविलेसणामो भवहेटजहिच्छिमोवलम्मामो । नाणफलाभावामओ मिच्छदिहिस्स अण्णाणं "विशेषा० गा० ११५,३१९ । विशेषा० गा० ३२३-३२४ । ५. तस्वार्थ० १.१० । ६.ज्ञानविन्दु ४०-४१।
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