Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना।
११९
भावनिक्षेपप्रधान दृष्टिको सामने रखने से कई गुत्थियाँ मुलझ सकती हैं । और आ० कुन्दकुन्दका तात्पर्य सहज ही में प्राप्त हो सकता है ।
अब हम आ० कुन्दकुन्दके द्वारा चर्चित कुछ विषयोंका निर्देश करते हैं । क्रम प्रायः वही रखा हो जो उमाखातिकी चर्चामें अपनाया है। इससे दोनोंकी तुलना हो जायगी और दार्शनिक विकासका क्रम भी ध्यानमें आ सकेगा।
[१] प्रमेयनिरूपण । ६१ तत्त्व, अर्थ, पदार्थ और तत्वार्थ ।। वाचककी तरह आ० कुन्दकुन्द भी तत्त्व, अर्थ, पदार्थ और तत्त्वार्थ इन शब्दोंको एकार्थक मानते हैं। किन्तु वाचक ने तत्त्वोंके विभाजनके अनेक प्रकारोंमेंसे सात तत्त्वोंको ही सम्यग्दर्शनके विषयभूत माने हैं। तब आचार्य कुन्दकुन्दने खसमयप्रसिद्ध सभी विभाजन प्रकारोंको एकसाथ सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे बता दिया है। उनका कहना है कि षड्द्रव्य, नव पदार्थ, पंच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनकी श्रद्धा करनेसे जीव सम्यग्दृष्टि होता है। ___ आचार्य कुन्दकुन्दने इन सभी प्रकारोंके अलावा अपनी ओरसे एक नये विभाजनप्रकारका मी प्रचलन किया । वैशेषिकोंने द्रव्य, गुण और कर्मको ही अर्थ संज्ञा दी थी (८.२.३)। इसके स्थानमें आचार्यने कह दिया कि अर्थ तो द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन हैं" । वाचकने जीवादि सातों तत्त्वोंको अर्थ' कहा है तब आ० कुन्दकुन्दने खतन्त्र दृष्टि से उपर्युक्त परिवर्धन मी किया है । जैसा मैंने पहले बताया है जैन आगमोंमें द्रव्य, गुण और पर्याय तो प्रसिद्ध ही थे। किन्तु आ० कुन्दकुन्द ही प्रथम हैं जिन्होंने उनको वैशेषिकदर्शनप्रसिद्ध अर्थसंज्ञा दी। ___ आचार्य कुन्दकुन्दका यह कार्य दार्शनिक दृष्टिसे हुआ है यह स्पष्ट है । विभागका अर्थ ही यह है कि जिसमें एक वर्गके पदार्थ दूसरे वर्गमें समाविष्ट न हों तथा' विभाज्य यावत् पदार्थोंका किसी न किसी वर्गमें समावेश भी हो जाय । इसी लिये आचार्य कुन्दकुन्दने जैनशासप्रसिद्ध अन्य विभाग प्रकारोंके अलावा इस नये प्रकारसे मी तात्त्विक विवेचना करना उचित समझा है। __ आचार्य कुन्दकुन्दको परमसंग्रहावलंबी अमेदवादका समर्थन करना मी इष्ट था अत एव द्रव्य, पर्याय और गुण इन तीनोंकी अर्थ संज्ञाके अलावा उन्होंके मात्र द्रव्यकी मी अर्थ संज्ञा रखी है और गुण तथा पर्यायको द्रव्यमें ही समाविष्ट कर दिया है। ६२ अनेकान्तवाद ।
आचार्यने आगमोपलब्ध अनेकान्तवादको और स्पष्ट किया है और प्रायः उन्ही विषयोंकी चर्चा की है जो आगमकालमें चर्चित थे । विशेषता यह है कि उन्होंने अधिक भार व्यवहार और निश्चयावलंबी पृथक्करणके ऊपर दिया है । उदाहरणके तौर पर आगममें जहाँ द्रव्य और
पंचाखिकाय गा० १२, ११६ । नियमसार गा०९। दर्शनप्राभुत गा० १९। २ वरवायसूत्र १.४।३ "छहण्य णव पयस्था पंचस्थी, सत्त तपणिहिट्ठा । सदाह ताण रूवं सो सट्ठिी मुणेयम्वो ॥" दर्शनप्रा. १९।। ४ प्रवचनसार १.८७ । ५ "वश्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एवं यार्थी" स्वार्थमा....। ६ प्रवचन० २.१.। २.९ से
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