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प्रस्तावना।
१२९
"भावा णाणपमाणं गाणं पेयप्पमाणमुट्ठि। णेयं लोयालोयं तम्हा जाणं तु सब्बगपं॥ सम्बगदो जिण बसहो सडवे विय तग्गया जगदि अठा। जाणमयादो य जिणो विसयादो तरस ते भणिया ॥"
प्रवचन०१.२३,२६ । यहाँ सर्वगत शब्द कायम रखकर अर्थमें परिवर्तन किया गया है क्यों कि उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि ज्ञान या आत्मा सर्वगत है इसका मतलब यह नहीं कि ज्ञानी ज्ञेयमें प्रविष्ट है या व्याप्त है किन्तु जैसे चक्षु अर्थसे दूर रह कर भी उसका ज्ञान कर सकती है वैसे आत्मा मी सर्व पदापोंको जानता भर है-प्रवचन० १.२८-३२। ___ अर्थात् दूसरे दार्शनिकोंने सर्वगत शब्दका अर्थ, गम धातुको गत्यर्थक मानकर सर्वव्यापक या विभु, ऐसा किया है जब कि आचार्यने गमधातुको मानार्थक मानकर सर्वगतका अर्थ किया है सर्वज्ञ । शब्द वही रहा किन्तु अर्थ जैनाभिप्रेत बन गया। . (४) जगत्कर्तृत्व-वाचार्यने विष्णुके जगत्कर्तृत्वके मन्तव्यका मी समन्वय जैन दृष्टिसे करनेका प्रयन किया है। उन्होंने कहा है कि व्यवहारनयके आश्रयसे जैनसंमत जीवकर्तृत्वमें
और लोकसंमत विष्णुके जगत्कर्तृत्वमें विशेष अन्तर नहीं है । इन दोनों मन्तव्योंको यदि पारमार्षिक माना जाय तब दोष यह होगा कि दोनोंके मतसे मोक्षकी कम्पना असंगत हो जायगी।
(५) कर्तृत्वाकर्तृत्वविवेक-सांख्योंके मतसे श्रास्मामें कर्तृत्व नहीं है क्योंकि उसमें परिणमन नहीं । कर्तृत्व प्रकृतिमें है क्योंकि वह प्रसवधर्मा है । पुरुष वैसा नहीं । तात्पर्य यह है कि जो परिणमनशील हो वह कर्ता हो सकता है । आचार्य कुन्दकुन्दने मी आत्माको सांख्यमतके समन्वयकी दृष्टिसे अकर्ता तो कहा ही है किन्तु अकर्तृत्वका तात्पर्य जैन दृष्टिसे उन्होंने बताया है कि आत्मा पुगलकोंका अर्थात् अनात्म-परिणमनका कर्ता नहीं है। जो परिणमनशील हो वह कर्ता है इस सांख्यसंमत व्याप्तिके बलसे आत्माको कर्ता भी कहा है क्योंकि वह परिणमनशील है । सांख्यसंमत आत्माकी कूटस्थता-अपरिणमनशीलता आचार्यको मान्य नहीं । उन्होंने जैनागम प्रसिद्ध आत्मपरिणमनका समर्थन किया है' और सांख्योंका निरास करके आत्माको खपरिणामोंका कर्ता माना है ।
कर्तृत्वकी व्यावहारिक व्याख्या लोकप्रसिद्ध भाषाप्रयोगकी दृष्टिसे होती है इस बातको खीकार करके मी आचार्यने बताया है कि नैश्चयिक या पारमार्थिक कर्तृत्वकी व्याख्या दूसरी ही करना चाहिए । व्यवहारकी भाषामें हम आत्माको कर्मका मी कर्ता कह सकते हैं किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से किसी भी परिणाम या कार्यका कर्ता खद्रव्य ही है पर द्रव्य नहीं। अतएव
बाहोंने भी विभुत्वका स्वाभिप्रेत भर्य किया है कि "विभुत्वं पुनाममहाणप्रभावसंपवता" मध्यान्तविभागटीका पु. ५। २ समयसार ३५०-३५२। सांयका. १९। वही"। ५ समयसार ८१-८८ । ६ वही ८९,९८ । प्रवचन० ३.९२ से। नियमसार १८। प्रवचन 1.RI १.८-से। ८ समयसार १२८ से। ९ समयसार १०५,११२-1१५। १० समवसाद |
न्या. प्रस्तावना १७
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