Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

Previous | Next

Page 316
________________ पृ० ११. पं० .] टिप्पणानि। १२७ ज्ञान विशुद्ध हो सकता है लेकिन जैनों के आप्त की तरह अपने दोषों का क्षय करके सकल अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार करना उन का काम नहीं। . जैन, बौद्ध, नै या यि क, वैशेषिक, सांख्य और योग इन समी के परमाप्त समी वस्तुओं का साक्षात्कार करके उन के विषय में दूसरों को उपदेश करते हैं अतएव वे प्रत्यक्ष से अपने अपने पक्ष के उपदेष्टा कहे जाते हैं । जब कि मी मां स क के मत से वे ऐसा नहीं कर सकते । मी मां स क के मत से अतीन्द्रिय वस्तुओं का उपदेश आगमाश्रित है और वह बागम संयंसिद्ध है । मीमांसकेतर के मत से आगम आताश्रित है और आप्त स्वयंसिद्ध है। मंगल की रचना के समय स्तोतव्य पुरुष को प्रन्यगत विषयानुकूल विशेषण देने की प्रथा प्रायः प्राचीन और नवीन ग्रन्थों में देखी जाती है । उसी का अनुसरण करके शान्या चार्य ने प्रस्तुत वृत्ति के मंगल में और वार्तिक के प्रथम लोक की व्याख्या में भगवान् को 'प्रमाण' कहा है। आ० दिमाग ने मी 'प्रमाण स मुचय की रचना करते समय भगवान् बुद्ध को 'प्रमाणभूत' कहा है। प्रमाण, खासकर प्रत्यक्ष प्रमाण, बौद्ध के मत से निर्विकल्पक होता है अतएव धर्म की र्ति ने प्रमाण वार्तिक' के प्रारम्भ में भगवान को 'विधूतकल्पनाजाल' कहा। जैनाचार्य प्रभा चन्द्र मी मगवान को 'प्रमाणलक्षण' कहते हैं । कुमारिल जब वेदानित मीमांसा दर्शन का समर्थन करने के लिए प्रस्तुत हुए तब उन्हों ने महादेव को 'त्रिवेदीदिव्यचक्षुष्' कहा। पूज्यपाद जब मोक्षमार्गशाम की टीका करने लगे तो भगवान को 'मोक्षमार्ग के नेता' कहा- 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' - सर्वार्थः । योगविषयक ग्रन्थ का प्रणयन करते समय आचार्य हरिभद्र ने भगवान को अयोगम् , योगिगम्यं ( योगद्द०)। योगीन्द्रवन्दितम् (योगबिन्दु) कहा । जब कि दार्शनिक कृति में उन्हों ने भगवान को 'सदर्शन' (षड्द०) कहा है। वे ही जब *सर्वज्ञसिद्धि' रचते है तब भगवान को अखिलार्यशताऽऽक्लिष्टमूर्ति कहते हैं । 'अनेकान्त की जयपताका' फहराते समय बही नाचार्य भगवान को 'सबूतवस्तुवादी' के रूप में देखते हैं। वेदान्त के किसी भी अन्य में यदि मंगलाचरण है तो वह ब्रह्म के खरूप प्रतिपादक विशेषणों से युक्त अवश्य हेण।। ऐसे और मी उदाहरण दिये जा सकते हैं। इतने उदाहरणों से हम उक्त नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि यह मी एक प्रथा अवश्य रही कि प्रत्यकार अपने प्रतिपाप विषय के बनु विशेषण से इष्ट देवको भूषित करते थे। पृ० ११.५०७. 'पचपेण'-आवश्यक नियुक्ति में नमस्कार शब्द का पदार्थ बताते समय कहा है कि "दब्वभावसकोयणं' पदार्थ है । अर्थात् नमस्कार दो प्रकार से होता है-एक तो बाम शरीर के अवयवों का संकोचन, यह द्रव्यसंकोचनरूप इत्य नमस्कार है और दूसरा विशुद्ध मन को प्रणति में लगाना, यह भावसंकोचरूप भाव नमस्कार है । मनःधिपूर्वक जो ..भावनि यि २८० २.विशेषा० २८५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525