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टिप्पणानि ।
[० ११. पं० १० (५) आचार्य विद्यानन्द ने आदि वाक्यके विषयमें दो प्रकारचे अनेकान्तका स्थापन किया है । एक तो उन्होंने यह कहा कि आदिवाक्यका प्रयोग अवश्य करणीय है सो मात नहीं। आदिवाक्य गम्यमान भी हो सकता है और प्रयुक्त भी हो सकता है। दूसरा उन्होंने यह भी कहा कि आदिवाक्य अनुमान प्रमाण भी है और आगम प्रमाण भी है । यही बात वादी देवसूरिने भी कही है। तत्त्वार्थश्लो० पृ. ३-४-स्माद्वादर० पृ० ११-१३ । __ पृ० ११. पं० १०. 'अभिधेयप्रयोजन' तुलना- "सम्यग्णागपूर्विकल्यादिनाउन प्रकरणस्यामिषेयप्रयोजनमुख्यते-न्यायबि० टी० पृ० २ । सन्मतिटी० पृ० १६९ ।
पृ० ११. पं० १०. । 'तदभिधानात्' -तुलना - "असिम्बार्थ उज्यमाने सम्बन्धप्रयो. जनामिषेयान्युक्तानि भवन्ति" न्यायबि० टी० पृ० ३।
पृ० ११. पं० १० 'तच श्रो' तुलना - श्लोकवा० श्लो० १२ । हेतुबि० टी० पृ० १ । १। सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । सन्मतिटी० पृ० १३९ । तत्त्वार्थ श्लो० पृ० २।
पृ० ११. पं० १४ 'कश्चित्' यह मत कुमारि ला दि का है।
पृ० ११. पं० १७ 'अन्ये यह मत किसी बौद्ध का है किन्तु धर्मो चरने इसका समर्थन किया है अतएव धर्मोत्तर का माना जाता है-न्यायबि० टी० पृ० ४ । तत्त्वसं० पू० पृ० २ । न्याया० टी० पृ० २ । न्यायप्र० पं० पृ० ३८।
पृ० १२. पं० ४. 'निष्फल' तुलना-न्यायबि० टी० पृ. ४। तत्वसं० ६० पृ.२ । न्यायकु० पृ० २०।
पृ० १२. पं० ७. 'अर्थसंशयात्' तुलना "उज्यते व्यवहारो हि संदेहादपि लौकिका"प्रकरणपं० पृ०१४।
पृ० १२. पं० ९ 'अन्ये यह मत अर्चट का है- हेतुबिन्दुटी० पृ० २।
पृ० १२. पं० १७. 'यतो' तुलना तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४ । सन्मतिटी० पृ० १७१। स्याद्वादर० पृ० १७।
पृ० १२. पं० १३. 'निःप्रयोजन यह अशुद्ध है। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंमे विसर्ग लिखनेकी प्रथा है किन्तु 'निष्प्रयोजन' ऐसा शुद्ध पाठ समझना चाहिए ।
पृ० १२. पं० २२. 'तस्मात् यहीसे शान्या चार्य अपना मत स्थापित करते हैं। उनका कहना है कि जैसे प्रत्यक्षादि और प्रमाण हैं वैसे ही वचन भी प्रमाण है । अतएव प्रमाणभूत आदिवाक्यसे प्रेक्षावान् फला की प्रवृत्ति हो जायगी । विद्यानन्द ने आदिवाक्यको आगम और परार्यानुमानरूप माना है- तत्त्वार्थ श्लो० पृ०३ । उन्हींका अनुसरण वादी देव सूरि भी करते हैं -स्याद्वादर० पृ० १२ । किन्तु सन्म ति टी का कार अभय देव ने स्पष्ट कहा है कि यह आदिवाक्य प्रत्यक्ष या अनुमानरूप नहीं है । किन्तु वह शब्द प्रमाणरूप अवश्य . है ( पृ० १७२)। शान्त्या चार्य ने इन्हीं का अनुकरण किया है । कम ल शील ने भी आदिवाक्यको आगम ही कहा है। उनके मतसे आगमप्रामाण्यका निश्चय प्रवृत्तिके लिए आवश्यक नहीं है । क्यों कि हमलोग आगमप्रणेताके गुणदोषकी परीक्षा करनेमें असमर्थ हैं और अत्यन्त
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