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पृ० ११. पं० १०]
टिप्पणानि ।
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मध्यान्त विभाग की प्रथम कारिकाको वसुबन्धु ने शास्त्रशरीरकी व्यवस्थापिका कहा है किन्तु वह उद्देशके लिए ही है ऐसा समझना चाहिए ।
(आ) शान्त्या चार्य ने आदिवाक्यका प्रयोजन श्रोताकी प्रवृत्ति कराना ही माना है । यह मत बहुत पुराना है । वैसे तो यह मत कुमारिल का समझा जाता है किन्तु उसके पहले भी व्याकरण शास्त्रके प्रयोजन बताते हुए पत अ लिने कहा है कि अध्येता की प्रवृत्तिके लिए शास्त्रारंभ में प्रयोजन बताना आवश्यक है । उसी बातका अनुवाद कुमारिल ने दार्शनिक क्षेत्रमें मी - सर्व प्रथम किया जान पडती है । कुमारिल के बादके बौद्धेतर दार्शनिक प्रन्थोंमें प्रायः कुमारिल का ही मत उन्हीं के शब्दोंमें स्वीकृत हुआ है ।
(इ) आदिवाक्यको यदि प्रमाण माना जाय तब वह अर्थप्रतिपादक होकर प्रवृत्त्यंग हो सकता है। किन्तु बौद्ध दार्शनिक शब्दको बाह्यार्थ में प्रमाण नहीं मानते अत एव उन्होंने कहा कि शब्दरूप आदिवाक्यसे प्रयोजनका प्रतिपादन हो नहीं सकता । किन्तु 'यह शास्त्र निष्फल है, अशक्यानुष्ठेय है' इत्यादि अनर्थसंशयको निवृत्त करके अर्थका संशय उत्पन्न करना यही – आदिवाक्यका प्रयोजन है । तदर्थी की अर्थसंशयसे ही शास्त्रमें प्रवृत्ति हो जायगी । इसी मतका समर्थन धर्मोत्तर, शान्त रक्षित, कमलशील आदि बौद्ध विद्वानोंने किया है।
(ई) हेतु बिन्दु के टीकाकार अर्चट ने पूर्वोक्त मतों का खण्डन करके एक नया मत स्थापित किया है । 'जो सप्रयोजन हो वही आरम्भयोग्य है । यह शास्त्र तो निष्प्रयोजन है। अत एव आरम्भयोग्य नहीं' इस प्रकार व्यापकानुपलब्धिके बलसे जो शास्त्रको अनारम्भणीय कहता हो उसको व्यापकानुपलब्धि की असिद्धताका अर्थात् व्यापककी उपलब्धि का भान कराना यही आदिवाक्यका प्रयोजन है। ऐसा अर्च टका मन्तव्य है ।
इस मतका कमलशील ने खण्डन करके धर्मोत्तर के पक्षका ही समर्थन किया है । बौद्धों को शब्दका प्रामाण्य इष्ट न होने से इस मतकी अपेक्षा पूर्वोक मत ही उनको अधिक संगत जैंचे यह स्वाभाविक है । यही कारण है कि यह मत अर्चट के अलावा 1 और किसी बौद्ध दार्शनिकको मान्य हुआ नहीं जान पड़ता न्यायप्रवेश की टीकामें हरिभद्र ने, जो कि जैन हैं, अर्च ट के मत को मी मान्य रखा है ।
( उ ) आदिवाक्यसे श्रोताके दिलमें श्रद्धा या कुतूहल उत्पन्न करना इष्ट है - यह मत किसी जैन का ही है ऐसा अनन्त वीर्य के 'स्वयूथ्य' शब्दसे प्रतीत होता है । उन्होंने उसी मतको ठीक समझा है । त्रिद्यानन्द इस मतको ठीक नही समझतें । उनको प्रथम मत श्रोताकी प्रवृत्ति ही इष्ट है ।
१. सुहृद्भूत्वा भाचार्य इदं शास्त्रमन्वाचष्टे - इमानि प्रयोजनानि अध्येयं व्याकरणम्" पात० पृ० ३८ । २. “सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य" इत्यादि - श्लोक० १२ । ३. कंदली - पृ० ३ | तत्त्वार्थलो० पृ० २ । सम्मतिटी ० पृ० १६९ । प्रमेयक० पृ० ३ । ४. इस मतका प्रसिद्ध समर्थक धर्मों सर होनेसें दूसरे आचार्य इस मतका उल्लेख धर्मोत्तर के नामसे करते हैं किन्तु उस मतका खण्डन अर्थट में है और अधर्मोत्तर से पूर्ववर्ती है अतएव वह मत धर्मोत्तर से पहले किसी आचार्य का होना हिये । ५. " तद्वाक्यादभिधेयादौ श्रद्धाकुतूहलोत्पादः ततः प्रवृत्तिरिति केचित् स्वयूथ्याः " सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । ६. तत्त्वार्थलो० पृ० ४ ।
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