Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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टिप्पणानि । [पृ० ११. पं० १० (४) आदिवाक्यके प्रयोजनके विषयमें भी नाना प्रकारके मतभेद देखे जाते हैं। उनमें से मुख्य ये हैं
(अ) शास्त्रार्थसंग्रह (आ) श्रोताकी प्रवृत्ति (इ) अर्थसंशयोत्पादन (ई) असिद्धतोद्भावन (उ) श्रद्धाकुतूहलोत्पादन
(अ) प्राचीन भाष्य ग्रन्थों में प्रायः आदिवाक्यका प्रयोजन शास्त्रार्थसंग्रह ही बताया गया है। उस एक ही शास्त्रार्थसंग्रहके तीन रूप नजर आते हैं । वे इस प्रकार हैं
१-न्या य भाष्य का र वात्स्या य न ने शास्त्रकी प्रवृत्ति तीन प्रकारसे मानी है-उद्देश, लक्षण और परीक्षा । उनका कहना है कि आदिसूत्रमें शास्त्रके विषयका उद्देश हुआ है । अर्थात् जिन विषयोंका इस शास्त्रमें लक्षण और परीक्षण किया गया है उन विषयोंका नाममात्रसे कपन ही' इस सूत्रसे होता है । सारांश कि आदिवाक्यका प्रयोजन उद्देश है । यह मत न्या यभाष्य कार का है । और यह उद्देश शास्त्रार्थसंग्रह ही है।
तत्त्वार्थ सूत्र कार उ मा खा ति भी खोपज्ञ भाष्यमें इसी मतका अवलम्बन लेते हैं- "शास्त्रानुपूर्वीविन्यासार्थ तूद्देशमात्रमिदमुच्यते"।
२-उपर्युक्त प्रकार वहीं संभव है जहाँ आदिसूत्रमें विभागपूर्वक विषयका कथन हों किन्तु "अथातो धर्म व्याख्यास्यामः" जैसे सूत्रोंमें जहाँ विषयका सामान्य निर्देश है; या "अथ प्रमाणपरीक्षा" जैसे सूत्रोंमें जहाँ सामान्यनिर्देश इस ढंगसे हुआ है कि प्रन्यके नामका भी निर्देश हो जाय; वहाँ इन सूत्रोंको सकलशास्त्रार्थसंग्राहक होने पर भी उद्देशपरक समझना ठीक न होगा । इसे श बरखा मी के मतानुसार सकलशास्त्रार्थकी प्रतिज्ञों, जिसका समर्थन संपूर्ण शास्त्रसे होता है, कहना चाहिए ।
यही प्रकार योग भाष्य के कर्ता व्यास ने अपनाया है ऐसा वा च स्पति का कहना है । -तत्त्ववै० १.१।
३-उपर्युक्त उद्देश और प्रतिज्ञाके अलावा शास्त्रार्थसंग्रहका एक तीसरा प्रकार भी है जो शास्त्रशरीर के नामसे प्रसिद्ध है । शास्त्रका शरीर दो प्रकारका है शब्दरूप और अर्थरूप( न्याया० टी० पृ०८)। आदिवाक्यमें इन दोनों प्रकारके शरीरकी व्यवस्था करना चाहिए ऐसा भी प्राचीनकालमें कुछ लोगोंका मत अवश्य रहा होगा। फलखरूप हम न्या य वा ति क के प्रारम्भमें शास्त्रशरीरकी व्यवस्था देखते हैं।
१. "सोऽयमनवयवेन तत्रार्थ उद्दिष्टो बेदितव्यः" न्यायभा० १.१.१ । २. "नामधेयेन पदार्थमात्रस्थाभिधानमुद्देशः" न्यायभा०१.१.३। ३. “स चायं शास्त्रार्थसंग्रहोऽनूयते नापूर्वो विधीयते"न्यायभा०४.२.१ । इससे पता चलता है कि वे उद्देशपरक आदि सूत्रको शास्त्रार्थसंग्राहक भी मानते थे। ४. "इत्येतासां प्रतिज्ञानां पिण्डस्यैतत् सूत्रम्" पृ० १२। ५. वादन्यायटीका० पृ० २. पं० २२। स्याद्वादर० पृ० १९। ६. "शास्त्रं पुनः" इत्यादि पृ०२।
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