Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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टिप्पणा नि ।
पृ० ११. पं० ४. हिताहितार्थ - इस कारिका की दो व्याख्याएँ वृत्तिमें हैं । उनमें से दूसरी व्याख्या ( पृ० १३. पं० १२) स्पष्टतया दिग्नाग के 'प्रमाण समुच्चय' के 'प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगल श्लोक का अनुकरण करके की गई है' । दिग्नाग ने 'प्रमाण समुच्चय' की रचना करते समय बुद्ध भगवान् को 'प्रमाणभूत' कहा है । वही बात शान्त्या चार्य ने प्रस्तुत कारिका की दूसरी व्याख्या में कही है ।
न्यायभाष्यकार वात्स्या य न ने कहा है कि “प्रमाणेन खल्वयं ज्ञातार्थमुपलभ्य तमर्थमभीप्सति, जिहासति वा” ( १. १. १ ) । उयो त कर ने स्पष्टीकरण किया है कि उपेक्षणीयार्थ की प्रतिपत्ति से पुरुष की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती नहीं है किन्तु सुखहेतु या दुःखहेतु अर्थ की तथाभूत प्रतिपत्ति ही प्रवर्तक या निवर्तक होती है । - न्यायवा. पृ० ७ ।
इसी बात को लक्ष्य में रख कर आचार्य धर्म कीर्ति ने 'प्रमाण समुच्चय' के उक्त मंगल लोक के वार्तिक में कहा है कि भगवान् हेयोपादेय तत्त्व के ज्ञाता होने से प्रमाण है । - प्रमाणवा० १. ३४ । उन्हों ने ज्ञान के प्रामाण्य का भी समर्थन उसी प्रकार से किया है । - प्रमाणवा० १. ५ । ३. २१७ | फलितार्थ यह है कि प्रमाण हेयोपादेय तख के विवेक में समर्थ होना चाहिए । धर्मोत्तर ने 'न्याय बिन्दु' की टीका में आदिवाक्य की व्याख्या में स्पष्ट कहा है कि - सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि सम्यग्ज्ञान से होती है और वह सिद्धि हेय के हान में और उपादेय के उपादान में पर्यवसित है । - न्यायबि० टी० पृ० ८ । उन्हों ने उपेक्षणीयार्थ को हेय के अन्तर्गत मान लिया है
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वात्स्यायन ने प्रमाण के-हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि ऐसे तीन फल माने हैं। ( न्यायभा० १. १. ३; १. १. ३२ ) फिर भी उन्हों ने प्रमाण को, जैसा ऊपर कहा गया है, हेय के हान में और उपादेय के उपादान में समर्थ बताया है । उद्द्योतकर ने उस का समर्थन किया है । ठीक वैसे ही यद्यपि सिद्ध सेन और समन्तभद्र ने प्रमाण के तीन फल माने हैं और उस का समर्थन अकलंक ने किया है । - ( न्याया० २८, आप्तमी० १०२, न्यायवि० का० ४७६ ) फिर भी अकलंक ने अनेकत्र प्रमाण को हेयार्थ के हान में और उपादेयार्थ के उपादान में समर्थ बताया है'। साथ ही उपेक्षणीयार्थ की उपेक्षा की बात नहीं कही। प्रभा चन्द्रा चार्य जैसों ने धर्मोत्तरादि की तरह उपेक्षणीयार्थ के पार्थक्य का मी निरास किया है । - प्रमेयक० पृ० ४ ।
इससे स्पष्ट है कि अ कलंक ने इस विषय में वा त्स्या य ना दि के पूर्वोक्त कथन का अनुसरण
१. प्रभा चन्द्र ने भी 'परीक्षा मुख' के प्रथमश्लोक की दूसरी व्याख्या वैसे ही की है - प्रमेयक० पृ० ७ । २. तुलना - " हिताहितविधिब्यासेधसम्भावनम्” आत्मतस्वविवेक पृ० १ । १. "हिताहिवार्थप्राप्तिपरिहारसमर्थे द्वे एव प्रमाणे" - प्रमाणसं० पृ० ९७ पं० ७; लषी० स्व० का० ६१५ न्यायवि० का० ४ इत्यादि ।
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