Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
View full book text
________________
प्रस्तावना ।
"बेदा दु पयडिय उपजदि विणस्सदि । पथडी वि चेदय उपजदि विणस्सदि ॥ एवं बंधी दुण्डंपि अण्णोष्णपचयाण हुवे ।
अप्पणी पयडीए य संसारो तेण जायवे ॥” समयसार ३४०-४१ ।
१३१
सांख्योंने पबन्धम्यायसे प्रकृति और पुरुषके संयोगसे जो सर्ग माना है उसकी तुलना यहाँ करणीय है
"पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य ।
पवन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥” सांख्यका० २१ । १६ दोषवर्णन ।
संसारचककी गति रुकनेसे मोक्षलब्धि कैसे होती है इसका वर्णन दार्शनिकसूत्रोंमें विविधरूप से आता है किन्तु सभी का तात्पर्य एक ही है कि अविद्या मोहकी निवृत्तिसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। न्यायसूत्र के अनुसार मिथ्याज्ञान मोह ही सभी अनयोंका मूल है । मिथ्याज्ञानसे राग और द्वेष और अन्य दोषकी परंपरा चलती है। दोषसे शुभ और अशुभ प्रवृत्ति होती है। शुभसे धर्म और अशुभसे अधर्म होता है। और उसीके कारण जन्म होता है और जन्मसे दुःख प्राप्त होता है। यही संसार है। इसके विपरीत जब तत्वज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान होता है तो मिथ्याज्ञान- मोहका नाश होता है और उसके नाशसे उत्तरोत्तरका मी निरोध हो जाता है'। और इस प्रकार संसारचक्र रुक जाता है। न्यायसूत्रमें सभी दोषोंका समावेश राग, द्वेष और मोह इन तीनमें कर दिया है'। और इन तीनोंमें भी मोहको ही सबसे प्रबल माना है क्योंकि यदि मोह नहीं तो अन्य कोई दोष उत्पन्न ही नहीं होते । अतएव तस्यज्ञानसे वस्तुतः मोहकी निवृत्ति होनेपर संसार निर्मूल हो जाता है। योगसूत्रमें क्लेश- दोषोंका वर्गीकरण प्रकारान्तरसे हैं किन्तु सभी दोषोंका मूल अविद्या - मिथ्याज्ञान मोहमें ही माना गया है'। योगसूत्रके अनुसार क्लेशोंसे कर्माशय - पुण्यापुण्य - धर्माधर्म होता है । और कर्माशय से उसका फल जाति-देह, आयु और भोग होता है । यही संसार है । इस संसारचक्रको रोकनेका एक ही उपाय है कि भेदशानसे - विवेकख्यातिसे अविद्याका नाश किया जाय । उसीसे कैवल्यप्राप्ति होती हैं ।
1
सांख्योंकी प्रकृति त्रिगुणात्मक है' -सस्त्र, रजस् और तमोरूप है। दूसरे शब्दोंमें प्रकृति सुख, दुःख और मोहात्मक है अर्थात् प्रीति- राग, अप्रीति - द्वेष और विषाद - मोहात्मक है" । सांख्योंने" विपर्ययसे बन्ध - संसार माना है । सांख्योंके अनुसार पांच विपर्यय वही हैं जो योगसूत्र के अनुसार क्लेश है" । तत्त्वके अभ्याससे जब अविपर्यय हो जाता है तब केवल ज्ञान - मेदज्ञान हो जाता है" । इसीसे प्रकृति निवृत्त हो जाती है और पुरुष कैवल्यलाभ करता है ।
Jain Education International
२ मावसू० ४.१.३ ।
व्यापसू० १.१.२ । और न्यायमा० । ३ " तेषां मोहः पापीयान् मामूढस्येतरोत्पत्तेः ।" न्यायसू० ४.१.६ । ४ "अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पद्मक्लेशाः " । ५ "अविद्या क्षेत्रसुत्तरेषाम्" २.४ । ६ योग० २.११ । ७ वही २.१३ । ८ वही० २.१५, १६ । ९ सयका ११ १० सक्षिका० १२ । ११ सोचका० ४४ । १२ वही ४७-४८ । १३ ही ६४ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org