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प्रस्तावना। न्यायावतार जैसी छोटीसी कृतिमें जैनदर्शन संमत इन चारों तत्त्वोंकी व्याख्या करनेका सफल व्यवस्थित प्रयन किया है। उन्होंने प्रमाणका लक्षण किया है और उसके भेद-प्रमेदोंका मी लक्षण किया है । खासकर अनुमानके विषयमें तो उसके हेत्वादि समी अंगप्रत्यंगोंकी संक्षेपमें मार्मिक चर्चा की है।
जैन न्यायशासकी चर्चा प्रमाणनिरूपणमें ही उन्होंने समाप्त नहीं की किन्तु नयोंका लक्षण और विषय बताकर जैनन्याय शास्त्रकी विशेषताकी ओर मी दार्शनिकोंका ध्यान खींचा है। ___ इस छोटीसी कृतिमें सिद्धसेन खमतानुसार न्यायशास्त्रोपयोगी प्रमाणादि पदार्थोंकी व्याख्या करके ही संतुष्ट नहीं हुए किन्तु परमतका निराकरण मी संक्षेपमें करनेका उन्होंने प्रयास किया है। लक्षणप्रणयनमें विमाग जैसे बौद्धोंका यत्र तत्र अनुकरण करके भी उन्हींके 'सर्वमालम्बने प्रान्तम्' तथा पक्षाप्रयोगके सिद्धान्तोंका युक्तिपूर्वक खण्डन किया है । बौद्धोंने जो हेतुलक्षण किया था उसके स्थानमें अन्तर्व्याप्तिके बौद्धसिद्धान्तसे ही फलित होनेवाला 'अन्यथानुपपत्तिरूप' हेतुलक्षण अपनाया जो आज तक जैनाचार्योंके द्वारा प्रमाणभूत माना जाता है।
४. वार्तिकके कर्ता। पातिककी रचना किसने की इस विषयमें अमीतक किसीने निर्णय नहीं किया है । प्रतियोंमें वार्तिककी समाप्तिके बाद कोई प्रशस्ति लेख नहीं है। उसकी अन्तिम कारिकामें 'सूत्रके ऊपर मैंने पार्तिककी रचना की है। सिर्फ इतना ही सूचन है
"सूत्रं सूत्रकृता कृतं मुकुलितं सद्भरिवीजैर्धनम् , तवाचा किल पार्तिक मृदु मया मोकं शिशूनां कृते।। भानोर्यकिरणैर्विकासि कमलं नेम्दो करैस्तत्राथा,
यरेन्दयतो विकासि जलजं मानोर्न तस्मिन्गति ॥" 'मैंने' अर्थात् किसने इसका कुछ पता नहीं लगता । इसी लिये जैनभाण्डारोंकी सूचियोंमें वार्तिकके कर्ताका नाम दिया नहीं जाता, देखो-'पत्तनस्थमान्यजनभाण्डागारीयप्रथसूची, भाग १. पृ० ११,८३,२९९ ।
इन सूचियोंके आधारसे अन्य लेखकोंने भी वार्तिकको अज्ञातकर्तृक कृति माना है। किन्तु निन्न कारणोंसे यह वार्तिक शान्याचार्यकी ही कृति है ऐसा मेरा अनुमान है
१ वार्तिक अस्यन्त प्राचीन कृति नहीं है जिससे उसके कर्ताका नाम विस्मृत हो जाय । आचार्य अकलंक ही नहीं किन्तु उनके प्रन्थके कई टीकाकारोंको भी वार्तिककारने देखा है यह बात कारिका १९,३८-१० से स्पष्ट है।
२ शान्त्याचार्यने वार्तिककी अंतिम पूर्वोदत कारिका जिसमें मैंने वार्तिक बनाया' ऐसी सूचना है, उसकी व्याख्या नहीं की है। इससे भी यही फलित होता है कि शान्स्पाचार्यके अतिरिक और कोई वार्तिकका कर्ता नहीं है।
३ जिस कालकी (सं० ९००-१३००) यह रचना है उस कालमें प्रपित अन्य दार्शनिक कारिकाबद्ध छोटे छोटे प्रन्थ प्रायः ऐसे ही हैं जिनमें मूल कारिका और उनकी टीका एककर्तृक ही हैं। जैसे विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा और उसकी वृत्ति, जिनेश्वरका प्रमालक्ष्म और उसकी वृत्ति, चन्द्रसेनकी उत्पादादिसिद्धि और उसकी टीका इत्यादि ।
न्या. प्रस्तावना १९
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