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प्रस्तावना।
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यही द्रव्य या सत्ता परमतत्व है । नाना देश और कालमें इसी परमतत्त्वका विस्तार है। जिन्हें हम द्रव्य, गुण या पर्यायके नामसे जानते हैं । वस्तुतः द्रव्यके अभावमें गुण या पर्याय तो होते ही नहीं। यही द्रव्य क्रमशः नाना गुणोंमें या पर्यायोंमें परिणत होता रहता है अत एव वस्तुतः गुण और पर्याय द्रव्यसे अनन्य है- द्रव्यरूप ही हैं। तब परमतत्त्व सत्ताको द्रव्यरूप ही मानना उचित है। ___ आगमों में भी द्रव्य और गुण-पर्यायके अभेदका कथन मिलता है किन्तु अभेद होते हुए मी भेद क्यों प्रतिभासित होता है इसका स्पष्टीकरण जिस ढंगसे आ० कुन्दकुन्दने किया वह उनके दार्शनिक अध्यवसायका फल है। __ आचार्य कुन्दकुन्दने अर्थको परिणमनशील बताया है। परिणाम और अर्थका तादात्म्य माना है । उनका कहना है कि कोई भी परिणाम द्रव्यके विना नहीं और कोई द्रव्य परिणामके विना नहीं। जिस समय द्रव्य जिस परिणामको प्राप्त करता है उस समय वह द्रव्य तन्मय होता है। इस प्रकार द्रव्य और परिणामका अविनाभाव बता कर दोनोंका तादात्म्य सिद्ध किया है। आचार्य कुन्दकुन्दने परमतत्त्व सत्ताका खरूप बताया है कि-(पंचा०८)
"सत्ता सम्वप्रयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जया।
भंगुप्पादधुबत्ता सपडिवक्खा हवदि एका ॥" ६५द्रव्य. गुण और पयोयका सम्बन्ध।
संसारके समी अर्थोका समावेश आ० कुन्दकुन्दके मतसे द्रव्य, गुण और पर्यायमें हो जाता हैं । इन तीनोंका परस्पर संबंध क्या है ? वाचकने कहा है कि द्रन्यके या द्रव्यमें गुणपर्याय होते हैं (तत्त्वार्थ० भा० ५.३७) । अत एव प्रश्न होता है कि यहाँ द्रव्य और गुणपर्यायका कुण्डबदरवत् आधाराधेय संबन्ध है या दंडदंडीवत् ख-खामिभाव संबन्ध है ! या वैशेषिकोंके समान समवाय संबन्ध है ! वाचकने इस विषयमें स्पष्टीकरण नहीं किया। __ आचार्य कुन्दकुन्दने इसका स्पष्टीकरण करनेके लिये प्रथम तो पृथक्व और अन्यस्व की व्याख्या की है
"पविभत्तपदेसत्तं पुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स।
__ अण्णत्तमतम्भावो ण तम्भवं होदि कथमेगं ॥" प्रवचन० २.१४ । अर्थात् जिन दो वस्तुओंके प्रदेश भिन्न होते हैं वे पृथक् कही जाती हैं । किन्तु जिनमें अतद्भाव होता है अर्थात् वह यह नहीं है ऐसा प्रत्यय होता है वे अन्य कही जाती हैं।
द्रव्य गुण और पर्यायमें प्रदेशमेद तो नहीं हैं अत एव वे पृथक् नहीं कहे जा सकते किन्तु अन्य तो कहे जा सकते हैं क्यों कि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं' तथा 'जो गुण है वह द्रव्य नहीं' ऐसा प्रत्यय होता हैं । इसीका विशेष स्पष्टीकरण उन्होंने यों किया है कि यह कोई नियम नहीं है कि जहाँ अत्यन्त मेद हो वहीं अन्यत्वका व्यवहार हो । अमिन्नमें मी व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय के कारण मेदज्ञान हो सकता है । और समर्थन किया है कि
प्रवचम० २.१५। २ प्रवचन २.१८।३समयसार ५ प्रवचन.1.1.। ६प्रवचन.1.61 प्रवचन 1.01 काय ५२।
न्या. प्रस्तावना १६
प्रवचन० २.१,२पंचा.९॥ प्रवचन.२.११।९पंचाखि
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