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प्रस्तावना
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आचार्यने उत्पादादित्रय और द्रव्य गुण-पर्यायका संबंध बताते हुए यह कहा है कि उत्पाद और विनाश ये द्रव्यके नहीं होते किन्तु गुण-पर्यायके होते हैं। आचार्यका यह कथन द्रव्य और गुणपर्यायके व्यवहारनयाश्रित भेदके आश्रयसे है। इतना ही नहीं किन्तु साक्ष्यसंमत आत्माकी कूटस्थता तथा नैयायिक-वैशेषिकसमत आत्मद्रव्यकी नित्यताका भी समन्वय करनेका प्रया इस कपनमें है । बुद्धिप्रतिबिम्ब या गुणान्तरोत्पत्तिके होते हुए भी जैसे आत्माको उक्त दार्शनिकोंने उत्पन्न या विनष्ट नहीं माना है वैसे प्रस्तुतमें आचार्यने द्रव्यको मी उत्पाद और व्ययशील नहीं माना है । द्रव्यनयके प्राधान्यसे जब वस्तुदर्शन होता है तब इसी परिणाम पर हम पहुंचते हैं।
किन्तु वस्तु केवल द्रव्य अर्थात् गुण-पर्यायशून्य नहीं है और न खभिन्न गुणपर्यायोंका अधिष्ठानमात्र । वह तो वस्तुतः गुणपर्यायमय है । हम पर्यायनयके प्राधान्यसे वस्तुको एकरूपताके साथ नानारूपमें भी देखते हैं । अर्थात् अनादिअनन्तकाल प्रवाहमें उत्पन्न और विनष्ट होनेवाले नानागुण-पर्यायोंके बीच हम संकलित ध्रुवता भी पाते हैं । यह ध्रुवांश कूटस न हो कर सांख्यसंमत प्रकृतिकी तरह परिणामिनिस्य प्रतीत होता है । यही कारण है कि आचार्यने पर्यायोंमें सिर्फ उत्पाद और व्यय ही नहीं किन्तु स्थिति भी मानी है। ६.७ सस्कार्यवाद-असत्कार्यवादका समन्वय ।
समी कार्योंके मूलमें एकरूप कारण को माननेवाले दार्शनिकोंने, चाहे वे सांख्य हों या प्राचीन वेदान्ती भर्तृप्रपश्च आदि या मध्यकालीन बल्लभाचार्य आदि, सत्कार्यवादको माना है। अर्थात् उनके मतमें कार्य अपने अपने कारणमें सत् होता है। तात्पर्य यह है कि असत् की उत्पत्ति नहीं और सत् का विनाश नहीं। इसके विपरीत न्याय-वैशेषिक और पूर्वमीमांसाका मत है कि कार्य अपने कारणमें सत् नहीं होता । पहले असत् ऐसा अर्थात् अपूर्व ही उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह हुआ कि असत् की उत्पत्ति और उत्पन्न सत् का विनाश होता है। __ आगमोंके अभ्यासमें हमने देखा है कि द्रव्य और पर्याय दृष्टिसे एक ही वस्तुमें नित्यानित्यता सिद्ध की गई है । उसी तत्वका आश्रय लेकर आ० कुन्दकुन्दने सत्कार्यवाद-परिणामवाद
और असत्कार्यवाद-आरंभवादका समन्वय करनेका प्रयत्न किया है । उन्होंने द्रव्यनयका आश्रय लेकर सत्कार्यवादका समर्थन किया कि “भावस्स णस्थि णासो णस्थि अभावस्स उप्पादो।" (पंचा० १५) अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो भाव-वस्तुका कमी नाश नहीं होता और अभावकी उत्पत्ति नहीं होती । अर्थात् असत् ऐसा कोई उत्पन्न नहीं होता । द्रव्य कमी नष्ट नहीं होता और जो कुछ उत्पन्न होता है वह द्रव्यात्मक होनेसे पहले सर्वथा असत् था यह नहीं कहा जासकता । जैसे जीव द्रव्य नाना पर्यायोंको धारण करता है फिर भी यह नहीं कहा जासकता कि वह नष्ट हुआ या नया उत्पन्न हुआ। अत एव द्रव्यदृष्टिसे यही मानना उचित है कि- "एवं सदो विणासो असदो जीवस्स परिथ उप्पादो।" पंचा०१९ ।
इस प्रकार द्रव्यदृष्टिसे सत्कार्यवादका समर्थन करके पर्यायनयके आश्रयसे आ० कुन्दकुन्दने असत्कार्यवादका भी समर्थन किया कि "एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होर
पंचा. १,५। २ प्रवचन. २.९। पंचा. " प्रमाणमी. प्रसा. प्र..।
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