Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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उत्पाइ-व्यय-प्रौव्य । दव्य और गुण-पर्यायमें मेद व्यवहार होनेपर मी वस्तुतः मेद नहीं । दृष्टांत देकर इस बातको समझाया है कि ख-खामिभावसंबंध संबंधिओंके पृथक् होनेपर मी हो सकता है और एक होनेपर मी हो सकता है-जैसे धन और धनीमें तथा ज्ञान और ज्ञानीमें । ज्ञानीसे ज्ञानगुणको, धनीसे धनके समान, अत्यन्त भिन्न नहीं माना जा सकता । क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी असन्त भिन्न हों तो ज्ञान और ज्ञानी-आत्मा ये दोनों अचेतन हो जायेंगे' । आत्मा और ज्ञानमें समवाय संबंध मानकर वैशेषिकोंने आत्माको ज्ञानी माना है । किन्तु आ० कुन्दकुन्दने कहा है कि ज्ञानके समवायसंबंधके कारण मी आत्मा ज्ञानी नहीं हो सकतौ । किन्तु गुण और द्रव्यको अपृथग्भूत अयुतसिद्ध ही मानना चाहिए ।' आचार्यने वैशेषिकोंके समवायलक्षणगत अयुतसिद्ध शब्दको खाभिप्रेत अर्थमें घटाया है। क्योंकि वैशेषिकोंने अयुतसिद्धोंमें समवाय मानकर भेद माना है जबकि आ० कुन्दकुन्दने अयुतसिद्धोंमें तादात्म्य माना है । आचार्यने स्पष्ट कहा है कि दर्शनज्ञान गुण आत्मासे स्वभावतः भिन्न नहीं किन्तु व्यपदेश भेदके कारण पृथकं (अन्य) कहे जाते है।
इसी अभेदको उन्होंने अविनाभाव संबंधके द्वारा मी व्यक्त किया है । वाचकने इतना तो कहा है कि गुणपर्याय वियुक्त द्रव्य नहीं होता। उसी सिद्धान्तको आचार्य कुन्दकुन्दने पल्लवित करके कहा है कि द्रव्यके विना पर्याय नहीं और पर्यायके विना द्रव्य नहीं । तथा गुणके विना द्रव्य नहीं और द्रव्यके विना गुण नहीं । अर्थात् भाव-वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक है।
६६. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ।
सत् को वाचकने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त कहा है । किन्तु यह प्रश्न होता है कि उत्पादादिका परस्पर और द्रव्य-गुण-पर्यायके साथ कैसा संबंध है।
आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट किया है कि उत्पत्ति नाशके विना नहीं और नाश उत्पत्तिके. विना नहीं । अर्थात् जब तक किसी एक पर्यायका नाश नहीं, दूसरे पर्याय की उत्पत्ति संभव महीं और जब तक किसी की उत्पत्ति नहीं दूसरेका नाश मी संभव नहीं । इस प्रकार उत्पत्ति और नाशका परस्पर अविनाभाव आचार्यने बताया है।
उत्पत्ति और नाशके परस्पर अविनाभाव का समर्थन करके ही आचार्यने संतोष नहीं किया किन्तु दार्शनिकोंमें सत्कार्यवाद-असत्कार्यवादको लेकर जो विवाद था उसे सुलझानेकी दृष्टि से कहा है कि ये उत्पाद और व्यय तमी घट सकते हैं जब कोई न कोई ध्रुव अर्थ माना जाय । इस प्रकार उत्पादादि तीनोंका अविनाभावसंबंध जब सिद्ध हुआ तब अभेद दृष्टिका अवलम्बन लेकर आचार्यने कह दिया कि एक ही समयमें एक ही द्रव्यमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका समवाय होनेसे द्रव्य ही उत्पादादित्रयरूप है।
पंचा० ५३। २ वही ५। ३ वही ५५। ४ वही५६। ५ वैशे...२.१ । प्रशख. समवायनिरूपण। ६ पंचास्ति०५८। "पजयविजुदं व दम्वविजुत्ता य पजया नस्थि । दो अणण्णभूदं भावं समणा परूविंति ॥ दब्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दवं विणा ण संभवदि । सम्वदिरित्तो भावो दम्वगुणाणं हवदि जमा ॥" पंचा० १२, ८प्रवचन २.८। ९प्रवचन. २.८ । १. प्रवचन० २.१०।
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