________________
१०८
पुद्रलद्रव्य।
६५. कालद्रव्यं ।
जैन आगमोंमें द्रव्यवर्णन प्रसंगमें कालद्रव्यको पृथक् गिनाया गया है। और उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। इससे आगमकालसे ही कालको खतन्त्र द्रव्य मानने न माननेकी दो परंपराएँ थीं यह स्पष्ट है । वा. उमाखाति 'कालच इत्येके' (५. ३८) सूत्रसे यह सूचित करते है कि वे कालको पृथक् द्रव्य माननेके पक्षपाती नहीं थे। कालको पृथक् नहीं माननेका पक्ष प्राचीन मालूम होता है क्योंकि लोक क्या है इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर दिगम्बर दोनोंके मतसे एकही है कि लोक पंचास्तिकायमय है। कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया कि लोक षड्दव्यास्मक है। अत एव मानना पडता है कि जैनदर्शनमें कालको पृथक् माननेकी परंपरा उतनी प्राचीन नहीं । यही कारण है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंमें कालके खरूपके विषय में मतभेद भी देखा जाता है।
उत्तराभ्ययनमें कालका लक्षण है "वत्तणालंक्खणो कालो" (२८.१०)। किन्तु वाचकने कालके विषयमें कहा है कि "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" (५.२२)। वाचकका यह कथन वैशेषिकसूत्रसे प्रभावित है।
६६. पुद्गल द्रव्य । ___ आगममें पुद्गलास्तिकायका लक्षण 'प्रहण किया गया है-"गहणलक्खणे णं पोग्गलस्थिकार" (भगवती-१३.१.४८१)। "गुणओ गहणगुणे" (भगवती-२.१०.११७ । स्थानांग सू०.१४१) इस सूत्रसे यह फलित होता है कि वस्तुका अव्यभिचारी-सहभावी गुण ही आगमकारको लक्षणरूपसे इष्ट था । सिर्फ पुद्गलके विषयमें ही नहीं किन्तु जीवादि विषयमें मी जो उनके उपयोगादि गुण हैं उन्हीं का लक्षणरूपसे भगवतीमें निर्देश है इससे यही फलित होता है कि आगमकालमें गुणही लक्षण समझा जाता रहा ।
प्रहणका अर्थ क्या है यह मी भगवतीके निम्न सूत्रसे स्पष्ट होता है"पोग्गलस्थिकाए गं जीवाणं ओरालिय-उब्विय-आहारए तेयाकम्मए सोदियचक्खिदिय-घाणिहिय-जिभिदिय-फार्सिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-माणापाणं च गहणं पवत्तति गहणलक्खणे णे पोग्गलस्थिकार" भगवती १३.४.४८१ । ___ अर्थात् जीव अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास रूपसे पुद्गलोंका ग्रहण करता है क्योंकि पुद्गलका लक्षण ही ग्रहण है । अर्थात् फलित यह होता है कि पुद्गलमें जीवके साथ संबंध होनेकी योग्यताका प्रतिपादन उसके सामान्य लक्षण प्रहण अर्थात् संबंधयोग्यताके आधार
चौथा कर्मग्रन्थ पृ० १५७। २ भगवती २.१०.१२.। 1.11.४२४ । ११.१.१८२,१८१ । २५... इल्पावि । प्रज्ञापना पद । उत्तरा०२८.१.1.स्थानांग सूच१५/जीवाभिगम।
"किमियं भंते ! छोएसि पवुषह। गोयमा, पंचस्थिकाया ।" भगवती १३.४.४८पंचाखिकाय गा०३. तवार्थभा. ३.६। ५इसमें एक ही अपवाद उत्तराध्ययनका है२८...। किन्तु इसका स्पष्टीकरण यही है कि वहाँ छः द्रव्य मानकर वर्णन किया है मत एव उस वर्णनके साथ संगति रखने के लिये लोकको छः व्यरूप कहा है। अन्यत्र छः द्रव्य माननेवालोंने भी कोकको पंचास्तिकायमय ही कहा है। जैसे आचार्य कुन्दकुन्द परतव्यवादी होते हुए भी लोकको जब पंचास्तिकायमय ही कहते हैं तब उस परंपराकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। चौथा-कर्मग्रन्थ पू०१५। ७ वैशे० २.१.१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org