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प्रस्तावना।
__ ९१ इन प्रश्नोंके प्रसंगमें उत्तरकी दृष्टि से चार प्रकारके प्रश्नोंका जो वर्णन बौद्धग्रन्थोंमें आता है उसका निर्देश उपयोगी है
१ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका है या नहीं में उत्तर दिया जाता है - एकांशव्याकरणीय । २ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर प्रति प्रश्न के द्वारा दिया जाता है- प्रतिपृच्छाव्याकरणीय ।
३ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर विभाग करके अर्थात् एक अंशमें 'है' कहकर और दूसरे अंशमें 'नहीं' कहकर दिया जाता है - विभज्यव्याकरणीय ।
४ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो स्थापनीय-अव्याकृत हैं जिनका उत्तर दिया नहीं जाता।' $७ छल-जाति ।
स्थानांगसूत्रमें हेतुशब्दका प्रयोग नाना अर्थमें हुआ है। प्रमाणसामान्य अर्थमें हेतुशब्दका प्रयोग प्रथम (पृ० ६३ ) बताया गया है । साधन अर्थमें हेतुशब्दका प्रयोग भी हेतुचर्चामें (पृ० ७८) बताया गया है । अब हम हेतुशब्दके एक और अर्थकी ओर भी वाचकका ध्यान दिलाना चाहते हैं । स्थानांगमें हेतुके जो-यापक आदि निम्न लिखित चार भेद बताये हैं उनकी व्याख्या देखनेसे स्पष्ट है कि यापक हेतु असद्धेतु है और स्थापक ठीक उससे उलटा है। इसी प्रकार व्यंसक और लूषकमें मी परस्पर विरोध है । अर्थात् ये चार हेतु दो द्वन्द्वोंमें विभक्त हैं।
यापक हेतुमें मुख्यतया साध्यसिद्धिका नहीं पर प्रतिवादीको जात्युत्तर देनेका ध्येय है । उसमें कालयापन करके प्रतिवादिको धोखा दिया जाता है । इसके विपरीत स्थापक हेतुसे अपने साध्यको शीघ्र सिद्ध करना इष्ट है । व्यंसक हेतु यह छल प्रयोग है तो लूषक हेतु प्रतिच्छल है । किन्तु प्रतिच्छल इस प्रकार किया जाता है जिससे कि प्रतिवादीके पक्षमें प्रसंगापादान हो और परिणामतः वह वादीके पक्षको खीकृत करनेके लिये बाध्य हो । अब हम यापकादिका शास्त्रोक्त विवरण देखें-( स्थानांग सू० ३३८)
(१) जावते (यापकः) (२) थावते (स्थापकः) (३) वंसते (व्यंसकः) (१) लूसते (लूषकः)
इन्हीं हेतुओंका विशेष वर्णन दशवकालिकसूत्र की नियुक्तिमें (गा० ८६ से) आ० भद्रबाहुने किया है उसीके आधारसे उनका परिचय यहाँ कराया जाता है, क्योंकि स्थानांगमें हेतुओंके नाममात्र उपलब्ध होते हैं । भद्रबाहुने चारों हेतुओंको लौकिक उदाहरणोंसे स्पष्ट किया है किन्तु उन हेतुओंका द्रव्यानुयोगकी चर्चा में कैसे प्रयोग होता है उसका स्पष्टीकरण दशवैकालिकचूर्णीमें है इसका भी उपयोग प्रस्तुत विवरणमें किया है।
(१) यापक। जिसको विशेषणोंकी बहुलताके कारण प्रतिवादी शीघ्र न समझसके और प्रतिवाद करनेमें असमर्थ हो, ऐसे हेतु को कालयापनमें कारण होनेसे यापक कहा जाता है । अथवा जिसकी व्याप्ति प्रसिद्ध न होनेसे तत्साधक अन्य प्रमाणकी अपेक्षा रखनेके कारण साध्यसिद्धि में विलम्ब होता हो उसे यापक कहते हैं।
वीप मिलिन्द पृ० १०५ ।
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