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प्रश्रके भेद। ८ अधिकदोषविशेष वह है जो प्रतिपत्तिके लिये अनावश्यक ऐसे अवयवोंका प्रयोग होनेपर होता है। न्यायसूत्रसंमत अधिक निग्रहस्थान यहाँ अभिप्रेत है । ९ खयंकृत दोष । १० परापादित दोष । ६६ प्रश्न। स्थानांगसूत्रमें प्रश्नके छ प्रकार बताए गये हैं - १ संशयप्रश्न २ व्युगृहप्रश्न ३ अनुयोगी १ अनुलोम ५ तथाज्ञान ६ अतथाज्ञान वादमें, चाहे वह वीतराग कथा हो या जल्प हो, प्रश्न का पर्याप्त महत्त्व है । प्रस्तुत सूत्रों प्रश्नके मेदोंका जो निर्देश है वह प्रश्नोंके पीछे रही प्रष्टाकी भावना या भूमिकाके आधारपर है ऐसा प्रतीत होता है।
१ संशयको दूर करनेके लिये जो प्रश्न पूछा जाय वह संशयप्रश्न है । इस संशयने न्यायसूत्रके सोलह पदार्थोंमें और चरकके वादपदोंमें स्थान पाया है।
संशय प्रश्नकी विशेषता यह है कि उसमें दो कोटिका निर्देश होता है । जैसे "किंनु खलु अस्त्यकालमृत्युः उतनास्तीति" विमान० अ०८.सू०४३।
२ प्रतिवादी जब अपने मिथ्याभिनिवेशके कारण प्रश्न करता है तब वह व्युहह प्रश्न है।
३ स्वयं वक्ता अपने वक्तव्यको स्पष्ट करनेके लिये प्रश्न खडा करके उसका उत्तर देता है तब वह अनुयोगी प्रश्न है अर्थात् व्याख्यान या प्ररूपणाके लिये किया गया प्रश्न । चरकमें एक अनुयोग वादपद है उसका लक्षण इस प्रकार चरकने किया है__ अनुयोगो नाम स यत्तद्विधानां तद्विद्यैरेव सार्धं तने तकदेशे या प्रश्ना प्रश्नैकदेशो वा मानविज्ञानवचनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते, यथा नित्यः पुरुष इति प्रतिज्ञाते यत् पर: 'को हेतुः' इत्याह सोऽनुयोगः। __स्थानांगका अनुयोगी प्रश्न वस्तुतः चरकके अनुयोगसे अभिन्न होना चाहिए ऐसा चरकके उक्त लक्षण से स्पष्ट है।
४ अनुलोमप्रश्न वह है जो दूसरेको अपने अनुकूल करनेके लिये किया जाता है जैसे कुशलप्रश्न ।
५ जिस वस्तुका ज्ञान पृच्छक और प्रष्टव्यको समान भावसे हो फिर भी उस विषयमें पूछा जाय तब वह प्रश्न तथाज्ञानप्रश्न है। जैसे भगवतीमें गौतमके प्रश्न ।
६ इससे विपरीत अतथाज्ञान प्रश्न है।
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